मंगलवार, 13 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद्धर्मतत्त्ववित्
मुन्यन्नैः स्यात्परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया
नैतादृशः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम्
न्यासो दण्डस्य भूतेषु मनोवाक्कायजस्य यः
एके कर्ममयान्यज्ञान्ज्ञानिनो यज्ञवित्तमाः
आत्मसंयमनेऽनीहा जुह्वति ज्ञानदीपिते
द्रव्ययज्ञैर्यक्ष्यमाणं दृष्ट्वा भूतानि बिभ्यति
एष माकरुणो हन्यादतज्ज्ञो ह्यसुतृप्ध्रुवम् १०
तस्माद्दैवोपपन्नेन मुन्यन्नेनापि धर्मवित्
सन्तुष्टोऽहरहः कुर्यान्नित्यनैमित्तिकीः क्रियाः ११

धर्म का मर्म जानने वाला पुरुष श्राद्ध में मांस का अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाय; क्योंकि पितरोंको ऋषि-मुनियों के योग्य हविष्यान्न से जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी पशु-हिंसा से नहीं होती ॥ ७ ॥ जो लोग सद्धर्मपालन की अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढक़र और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणीको मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाय ॥ ८ ॥ इसीसे कोई-कोई यज्ञ-तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी ज्ञानके द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयमरूप अग्रिमें इन कर्ममय यज्ञोंका हवन कर देते हैं और बाह्य कर्म-कलापोंसे उपरत हो जाते हैं ॥ ९ ॥ जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणों का पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ॥ १० ॥ इसलिये धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्धके द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्न से ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसीसे सर्वदा सन्तुष्ट रहे ॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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