॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
श्रीनारद
उवाच
कर्मनिष्ठा
द्विजाः केचित्तपोनिष्ठा नृपापरे
स्वाध्यायेऽन्ये
प्रवचने केचन ज्ञानयोगयोः ॥ १ ॥
ज्ञाननिष्ठाय
देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता
दैवे
च तदभावे स्यादितरेभ्यो यथार्हतः ॥ २ ॥
द्वौ
दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि
श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम् ॥ ३ ॥
देशकालोचितश्रद्धा
द्रव्यपात्रार्हणानि च
सम्यग्भवन्ति
नैतानि विस्तरात्स्वजनार्पणात् ॥ ४ ॥
देशे
काले च सम्प्राप्ते मुन्यन्नं हरिदैवतम्
श्रद्धया
विधिवत्पात्रे न्यस्तं कामधुगक्षयम् ॥ ५ ॥
देवर्षिपितृभूतेभ्य
आत्मने स्वजनाय च
अन्नं
संविभजन्पश्येत्सर्वं तत्पुरुषात्मकम् ॥ ६ ॥
नारदजी
कहते हैं—युधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणोंकी निष्ठा कर्ममें, कुछकी
तपस्यामें, कुछकी वेदोंके स्वाध्याय और प्रवचनमें, कुछकी आत्मज्ञानके सम्पादनमें तथा कुछकी योगमें होती है ॥ १ ॥ गृहस्थ
पुरुषको चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजाके अवसरपर अपने कर्मका अक्षय फल प्राप्त
करनेके लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुषको ही हव्य-कव्यका दान करे। यदि वह न मिले तो योगी,
प्रवचनकार आदिको यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ २ ॥ देवकार्यमें
दो और पितृकार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये।
अत्यन्त धनी होनेपर भी श्राद्धकर्ममें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये ॥ ३ ॥
क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनोंको देनेसे और विस्तार करनेसे देश-कालोचित श्रद्धा,
पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो
पाते ॥ ४ ॥ देश और कालके प्राप्त होनेपर ऋषि-मुनियोंके भोजन करनेयोग्य शुद्ध
हविष्यान्न भगवान्को भोग लगाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक योग्य पात्रको देना चाहिये।
वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ ५ ॥ देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी,
स्वजन और अपने-आपको भी अन्नका विभाजन करनेके समय परमात्मस्वरूप ही
देखे ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
जय श्री कृष्ण
जवाब देंहटाएं🌼🍂🌾जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏