सोमवार, 12 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

श्रीनारद उवाच

कर्मनिष्ठा द्विजाः केचित्तपोनिष्ठा नृपापरे
स्वाध्यायेऽन्ये प्रवचने केचन ज्ञानयोगयोः
ज्ञाननिष्ठाय देयानि कव्यान्यानन्त्यमिच्छता
दैवे च तदभावे स्यादितरेभ्यो यथार्हतः
द्वौ दैवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम्
देशकालोचितश्रद्धा द्रव्यपात्रार्हणानि च
सम्यग्भवन्ति नैतानि विस्तरात्स्वजनार्पणात्
देशे काले च सम्प्राप्ते मुन्यन्नं हरिदैवतम्
श्रद्धया विधिवत्पात्रे न्यस्तं कामधुगक्षयम्
देवर्षिपितृभूतेभ्य आत्मने स्वजनाय च
अन्नं संविभजन्पश्येत्सर्वं तत्पुरुषात्मकम्

नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणोंकी निष्ठा कर्ममें, कुछकी तपस्यामें, कुछकी वेदोंके स्वाध्याय और प्रवचनमें, कुछकी आत्मज्ञानके सम्पादनमें तथा कुछकी योगमें होती है ॥ १ ॥ गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजाके अवसरपर अपने कर्मका अक्षय फल प्राप्त करनेके लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुषको ही हव्य-कव्यका दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदिको यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ २ ॥ देवकार्यमें दो और पितृकार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होनेपर भी श्राद्धकर्ममें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये ॥ ३ ॥ क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनोंको देनेसे और विस्तार करनेसे देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ॥ ४ ॥ देश और कालके प्राप्त होनेपर ऋषि-मुनियोंके भोजन करनेयोग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान्‌को भोग लगाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक योग्य पात्रको देना चाहिये। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ ५ ॥ देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने-आपको भी अन्नका विभाजन करनेके समय परमात्मस्वरूप ही देखे ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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