॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौदहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
गृहस्थसम्बन्धी
सदाचार
पात्रं
त्वत्र निरुक्तं वै कविभिः पात्रवित्तमैः ।
हरिरेवैक
उर्वीश यन्मयं वै चराचरम् ॥ ३४ ॥
देवर्ष्यर्हत्सु
वै सत्सु तत्र ब्रह्मात्मजादिषु ।
राजन्
यद् अग्रपूजायां मतः पात्रतयाच्युतः ॥ ३५ ॥
जीवराशिभिराकीर्ण
अण्डकोशाङ्घ्रिपो महान् ।
तन्मूलत्वाद्
अच्युतेज्या सर्वजीवात्मतर्पणम् ॥ ३६ ॥
पुराण्यनेन
सृष्टानि नृ तिर्यग् ऋषिदेवताः ।
शेते
जीवेन रूपेण पुरेषु पुरुषो ह्यसौ ॥ ३७ ॥
तेष्वेव
भगवान् राजन् तारतम्येन वर्तते ।
तस्मात्
पात्रं हि पुरुषो यावानात्मा यथेयते ॥ ३८ ॥
दृष्ट्वा
तेषां मिथो नृणां अवज्ञानात्मतां नृप ।
त्रेतादिषु
हरेरर्चा क्रियायै कविभिः कृता ॥ ३९ ॥
ततोऽर्चायां
हरिं केचित् संश्रद्धाय सपर्यया ।
उपासत
उपास्तापि नार्थदा पुरुषद्विषाम् ॥ ४० ॥
पुरुषेष्वपि
राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदुः ।
तपसा
विद्यया तुष्ट्या धत्ते वेदं हरेस्तनुम् ॥ ४१ ॥
नन्वस्य
ब्राह्मणा राजन् कृष्णस्य जगदात्मनः ।
पुनन्तः
पादरजसा त्रिलोकीं दैवतं महत् ॥ ४२ ॥
युधिष्ठिर
! पात्र-निर्णयके प्रसङ्गमें पात्रके गुणोंको जाननेवाले विवेकी पुरुषोंने एकमात्र
भगवान्को ही सत्पात्र बतलाया है। यह चराचर जगत् उन्हींका स्वरूप है ॥ ३४ ॥ अभी
तुम्हारे इसी यज्ञकी बात है; देवता, ऋषि,
सिद्ध और सनकादिकोंके रहनेपर भी अग्रपूजाके लिये भगवान्
श्रीकृष्णको ही पात्र समझा गया ॥ ३५ ॥ असंख्य जीवोंसे भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप
महावृक्षके एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी पूजासे समस्त
जीवोंकी आत्मा तृप्त हो जाती है ॥ ३६ ॥ उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी,
ऋषि और देवता आदिके शरीररूप पुरोंकी रचना की है तथा वे ही इन
पुरोंमें जीवरूपसे शयन भी करते हैं। इसीसे उनका एक नाम ‘पुरुष’
भी है ॥ ३७ ॥ युधिष्ठिर ! एकरस रहते हुए भी भगवान् इन मनुष्यादि
शरीरों में उनकी विभिन्नताके कारण न्यूनाधिकरूपसे प्रकाशमान हैं। इसलिये पशु-पक्षी
आदि शरीरोंकी अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्योंमें भी, जिसमें भगवान्का अंश—तप-योगादि जितना ही अधिक पाया
जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है ॥ ३८ ॥ युधिष्ठिर ! त्रेता
आदि युगोंमें जब विद्वानोंने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरेका अपमान आदि करते हैं,
तब उन लोगोंने उपासनाकी सिद्धिके लिये भगवान्की प्रतिमाकी
प्रतिष्ठा की ॥ ३९ ॥ तभीसे कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्रीसे प्रतिमामें ही
भगवान्की पूजा करते हैं। परंतु जो मनुष्यसे द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमाकी उपासना करनेपर भी सिद्धि नहीं मिल सकती ॥ ४० ॥ युधिष्ठिर
! मनुष्योंमें भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या,
विद्या और सन्तोष आदि गुणोंसे भगवान् के वेदरूप शरीर को धारण करता
है ॥ ४१ ॥ महाराज ! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या—ये जो
सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण
ही हैं। क्योंकि उनके चरणों की धूल से तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं ॥ ४२ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे
सदाचारनिर्णयो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव 🌼🥀🌹🙏🙏🙏
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