सोमवार, 12 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

गृहस्थसम्बन्धी सदाचार

पात्रं त्वत्र निरुक्तं वै कविभिः पात्रवित्तमैः ।
हरिरेवैक उर्वीश यन्मयं वै चराचरम् ॥ ३४ ॥
देवर्ष्यर्हत्सु वै सत्सु तत्र ब्रह्मात्मजादिषु ।
राजन् यद् अग्रपूजायां मतः पात्रतयाच्युतः ॥ ३५ ॥
जीवराशिभिराकीर्ण अण्डकोशाङ्‌घ्रिपो महान् ।
तन्मूलत्वाद् अच्युतेज्या सर्वजीवात्मतर्पणम् ॥ ३६ ॥
पुराण्यनेन सृष्टानि नृ तिर्यग् ऋषिदेवताः ।
शेते जीवेन रूपेण पुरेषु पुरुषो ह्यसौ ॥ ३७ ॥
तेष्वेव भगवान् राजन् तारतम्येन वर्तते ।
तस्मात् पात्रं हि पुरुषो यावानात्मा यथेयते ॥ ३८ ॥
दृष्ट्वा तेषां मिथो नृणां अवज्ञानात्मतां नृप ।
त्रेतादिषु हरेरर्चा क्रियायै कविभिः कृता ॥ ३९ ॥
ततोऽर्चायां हरिं केचित् संश्रद्धाय सपर्यया ।
उपासत उपास्तापि नार्थदा पुरुषद्विषाम् ॥ ४० ॥
पुरुषेष्वपि राजेन्द्र सुपात्रं ब्राह्मणं विदुः ।
तपसा विद्यया तुष्ट्या धत्ते वेदं हरेस्तनुम् ॥ ४१ ॥
नन्वस्य ब्राह्मणा राजन् कृष्णस्य जगदात्मनः ।
पुनन्तः पादरजसा त्रिलोकीं दैवतं महत् ॥ ४२ ॥

युधिष्ठिर ! पात्र-निर्णयके प्रसङ्गमें पात्रके गुणोंको जाननेवाले विवेकी पुरुषोंने एकमात्र भगवान्‌को ही सत्पात्र बतलाया है। यह चराचर जगत् उन्हींका स्वरूप है ॥ ३४ ॥ अभी तुम्हारे इसी यज्ञकी बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकोंके रहनेपर भी अग्रपूजाके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही पात्र समझा गया ॥ ३५ ॥ असंख्य जीवोंसे भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप महावृक्षके एकमात्र मूल भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी पूजासे समस्त जीवोंकी आत्मा तृप्त हो जाती है ॥ ३६ ॥ उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदिके शरीररूप पुरोंकी रचना की है तथा वे ही इन पुरोंमें जीवरूपसे शयन भी करते हैं। इसीसे उनका एक नाम पुरुषभी है ॥ ३७ ॥ युधिष्ठिर ! एकरस रहते हुए भी भगवान्‌ इन मनुष्यादि शरीरों में उनकी विभिन्नताके कारण न्यूनाधिकरूपसे प्रकाशमान हैं। इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरोंकी अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्योंमें भी, जिसमें भगवान्‌का अंशतप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है ॥ ३८ ॥ युधिष्ठिर ! त्रेता आदि युगोंमें जब विद्वानोंने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरेका अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगोंने उपासनाकी सिद्धिके लिये भगवान्‌की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की ॥ ३९ ॥ तभीसे कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्रीसे प्रतिमामें ही भगवान्‌की पूजा करते हैं। परंतु जो मनुष्यसे द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमाकी उपासना करनेपर भी सिद्धि नहीं मिल सकती ॥ ४० ॥ युधिष्ठिर ! मनुष्योंमें भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणोंसे भगवान्‌ के वेदरूप शरीर को धारण करता है ॥ ४१ ॥ महाराज ! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्याये जो सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं। क्योंकि उनके चरणों की धूल से तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे सदाचारनिर्णयो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



1 टिप्पणी:

  1. श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेव 🌼🥀🌹🙏🙏🙏

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