॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१४)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
भावाद्वैतं
क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं तथात्मनः
वर्तयन्स्वानुभूत्येह
त्रीन्स्वप्नान्धुनुते मुनिः ॥ ६२ ॥
कार्यकारणवस्त्वैक्य
दर्शनं पटतन्तुवत्
अवस्तुत्वाद्विकल्पस्य
भावाद्वैतं तदुच्यते ॥ ६३ ॥
यद्ब्रह्मणि
परे साक्षात्सर्वकर्मसमर्पणम्
मनोवाक्तनुभिः
पार्थ क्रियाद्वैतं तदुच्यते ॥ ६४ ॥
आत्मजायासुतादीनामन्येषां
सर्वदेहिनाम्
यत्स्वार्थकामयोरैक्यं
द्रव्याद्वैतं तदुच्यते ॥ ६५ ॥
जो
विचारशील पुरुष स्वानुभूतिसे आत्माके त्रिविध अद्वैतका साक्षात्कार करते हैं—वे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति
और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्यके भेदरूप स्वप्नको मिटा देते हैं।
ये अद्वैत तीन प्रकारके हैं—भावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत ॥ ६२ ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है,
वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तवमें है
नहीं। इस प्रकार सबकी एकताका विचार ‘भावाद्वैत’ है ॥ ६३ ॥ युधिष्ठिर ! मन, वाणी और शरीरसे होनेवाले
सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामें ही हो रहे हैं, उसीमें
अध्यस्त हैं—इस भावसे समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है ॥ ६४ ॥ स्त्री-पुत्रादि
सगे-सम्बन्धी एवं संसारके अन्य समस्त प्राणियोंके तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही
हैं, उनमें अपने और परायेका भेद नहीं है—इस प्रकारका विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है ॥ ६५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌷🥀🌾🌿जय श्री हरि: !!🙏🙏
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