रविवार, 18 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते
शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ५६
आदावन्ते जनानां सद्बहिरन्तः परावरम्
ज्ञानं ज्ञेयं वचो वाच्यं तमो ज्योतिस्त्वयं स्वयम् ५७
आबाधितोऽपि ह्याभासो यथा वस्तुतया स्मृतः
दुर्घटत्वादैन्द्रियकं तद्वदर्थविकल्पितम् ५८
क्षित्यादीनामिहार्थानां छाया न कतमापि हि
न सङ्घातो विकारोऽपि न पृथङ्नान्वितो मृषा ५९
धातवोऽवयवित्वाच्च तन्मात्रावयवैर्विना
न स्युर्ह्यसत्यवयविन्यसन्नवयवोऽन्ततः ६०
स्यात्सादृश्यभ्रमस्तावद्विकल्पे सति वस्तुनः
जाग्रत्स्वापौ यथा स्वप्ने तथा विधिनिषेधता ६१

ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वत: जान लेता है, वह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ ५६ ॥ पैदा होनेवाले शरीरोंके पहले भी कारणरूपसे और उनका अन्त हो जानेपर भी उनकी अवधिरूपसे जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूपसे बाहर और भोक्तारूपसे भीतर है तथा ऊँच और नीच, जानना और जाननेका विषय, वाणी और वाणीका विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओंके रूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ५७ ॥ दर्पण आदिमें दीख पडऩेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्तिसे बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तुके रूपमें तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा दीखनेवाला वस्तुओंका भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभवसे असम्भव होनेके कारण वस्तुत: न होनेपर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतोंसे इस शरीरका निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतोंका सङ्घात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवोंसे न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ ५९ ॥ इसी प्रकार शरीरके कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होनेके कारण अपने अवयवोंसूक्ष्मभूतोंसे भिन्न नहीं है, अवयवरूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करनेपर भी अवयवोंके अतिरिक्त अवयवीका अस्तित्व नहीं मिलतावह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं ॥ ६० ॥ जबतक अज्ञानके कारण एक ही परमतत्त्वमें अनेक वस्तुओंके भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तबतक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्नमें भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओंके अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेधके शास्त्र रहते हैंवैसे ही जबतक इन भिन्नताओंके अस्तित्वका मोह बना हुआ है, तबतक यहाँ भी विधि-निषेधके शास्त्र हैं ही ॥ ६१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



1 टिप्पणी:

  1. 💐🌷🌾 जय श्री हरि: !!🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏

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