मंगलवार, 6 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्
प्रह्रादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ ११ ॥
तं शयानं धरोपस्थे कावेर्यां सह्यसानुनि
रजस्वलैस्तनूदेशैर्निगूढामलतेजसम् ॥ १२ ॥
ददर्श लोकान्विचरन्लोकतत्त्वविवित्सया
वृतोऽमात्यैः कतिपयैः प्रह्रादो भगवत्प्रियः ॥ १३ ॥
कर्मणाकृतिभिर्वाचा लिङ्गैर्वर्णाश्रमादिभिः
न विदन्ति जना यं वै सोऽसाविति न वेति च ॥ १४ ॥
तं नत्वाभ्यर्च्य विधिवत्पादयोः शिरसा स्पृशन्
विवित्सुरिदमप्राक्षीन्महाभागवतोऽसुरः ॥ १५ ॥
बिभर्षि कायं पीवानं सोद्यमो भोगवान्यथा
वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह
भोगिनां खलु देहोऽयं पीवा भवति नान्यथा ॥ १६ ॥
न ते शयानस्य निरुद्यमस्य ब्रह्मन्नु हार्थो यत एव भोगः
अभोगिनोऽयं तव विप्र देहः पीवा यतस्तद्वद नः क्षमं चेत् ॥ १७ ॥
कविः कल्पो निपुणदृक्चित्रप्रियकथः समः
लोकस्य कुर्वतः कर्म शेषे तद्वीक्षितापि वा ॥ १८ ॥

युधिष्ठिर ! इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद ॥ ११ ॥ एक बार भगवान्‌ के परम प्रेमी प्रह्लाद जी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदयकी बात जाननेकी इच्छासे लोकोंमें विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वतकी तलहटीमें कावेरी नदीके तटपर पृथ्वीपर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीरकी निर्मल ज्योति अङ्गोंके धूलि-धूसरित होनेके कारण ढकी हुई थी ॥ १२-१३ ॥ उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदिके चिह्नोंसे लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं ॥ १४ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजीने अपने सिरसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जाननेकी इच्छासे यह प्रश्र किया ॥ १५ ॥ भगवन् ! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषोंके समान हृष्ट-पुष्ट है। संसारका यह नियम है कि उद्योग करनेवालोंको धन मिलता है, धनवालोंको ही भोग प्राप्त होता है और भोगियोंका ही शरीर हृष्ट-पुष्ट होता है। और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता ॥ १६ ॥ भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पड़े रहते हैं। इसलिये आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँसे प्राप्त होंगे ? ब्राह्मणदेवता ! बिना भोगके ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुननेयोग्य हो, तो अवश्य बतलाइये ॥ १७ ॥ आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्थामें आप सारे संसारको कर्म करते हुए देखकर भी समभावसे पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है ?’ ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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