मंगलवार, 6 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

श्रीनारद उवाच
कल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषितः
ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्महीम् ॥ १ ॥
बिभृयाद्यद्यसौ वासः कौपीनाच्छादनं परम्
त्यक्तं न लिङ्गाद्दण्डादेरन्यत्किञ्चिदनापदि ॥ २ ॥
एक एव चरेद्भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रयः
सर्वभूतसुहृच्छान्तो नारायणपरायणः ॥ ३ ॥
पश्येदात्मन्यदो विश्वं परे सदसतोऽव्यये
आत्मानं च परं ब्रह्म सर्वत्र सदसन्मये ॥ ४ ॥
सुप्तिप्रबोधयोः सन्धावात्मनो गतिमात्मदृक्
पश्यन्बन्धं च मोक्षं च मायामात्रं न वस्तुतः ॥ ५ ॥
नाभिनन्देद्ध्रुवं मृत्युमध्रुवं वास्य जीवितम्
कालं परं प्रतीक्षेत भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ६ ॥
नासच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम्
वादवादांस्त्यजेत्तर्कान्पक्षं कंच न संश्रयेत् ॥ ७ ॥
न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान्नैवाभ्यसेद्बहून्
न व्याख्यामुपयुञ्जीत नारम्भानारभेत्क्वचित् ॥ ८ ॥
न यतेराश्रमः प्रायो धर्महेतुर्महात्मनः
शान्तस्य समचित्तस्य बिभृयादुत वा त्यजेत् ॥ ९ ॥
अव्यक्तलिङ्गो व्यक्तार्थो मनीष्युन्मत्तबालवत्
कविर्मूकवदात्मानं स दृष्ट्या दर्शयेन्नृणाम् ॥ १० ॥

नारदजी कहते हैंधर्मराज ! यदि वानप्रस्थीमें ब्रह्मविचारका सामर्थ्य हो, तो शरीरके अतिरिक्त और सब कुछ छोडक़र वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँवमें एक ही रात ठहरनेका नियम लेकर पृथ्वीपर विचरण करे ॥ १ ॥ यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अङ्ग ढक जायँ। और जबतक कोई आपत्ति न आवे, तबतक दण्ड तथा अपने आश्रमके चिह्नोंके सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तुको ग्रहण न करे ॥ २ ॥ संन्यासीको चाहिये कि वह समस्त प्राणियोंका हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसीका आश्रय न लेकर अपने-आपमें ही रमे एवं अकेला ही विचरे ॥ ३ ॥ इस सम्पूर्ण विश्वको कार्य और कारणसे अतीत परमात्मामें अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में  ब्रह्मस्वरूप अपने आत्माको परिपूर्ण देखे ॥ ४ ॥ आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरणकी सन्धिमें अपने स्वरूपका अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया हैं, वस्तुत: कुछ नहींऐसा समझे ॥ ५ ॥ न तो शरीरकी अवश्य होनेवाली मृत्युका अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवनका। केवल समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और नाशके कारण कालकी प्रतीक्षा करता रहे ॥ ६ ॥ असत्यअनात्मवस्तुका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंसे प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाहके लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवादके लिये कोई तर्क न करे और संसारमें किसीका पक्ष न ले ॥ ७ ॥ शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थोंका अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामोंका आरम्भ न करे ॥ ८ ॥ शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासीके लिये किसी आश्रमका बन्धन धर्मका कारण नहीं है। वह अपने आश्रमके चिह्नोंको धारण करे, चाहे छोड़ दे ॥ ९ ॥ उसके पास कोई आश्रमका चिह्न न हो, परंतु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परंतु जान पड़े पागल और बालककी तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होनेपर भी साधारण मनुष्योंकी दृष्टिसे ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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