॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
सन्तुष्टः
केन वा राजन्न वर्तेतापि वारिणा
औपस्थ्यजैह्व्यकार्पण्याद्गृहपालायते
जनः ॥
१८ ॥
असन्तुष्टस्य
विप्रस्य तेजो विद्या तपो यशः
स्रवन्तीन्द्रियलौल्येन
ज्ञानं चैवावकीर्यते ॥ १९ ॥
कामस्यान्तं
हि क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात्
जनो
याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुवः ॥ २०
॥
पण्डिता
बहवो राजन्बहुज्ञाः संशयच्छिदः
सदसस्पतयोऽप्येके
असन्तोषात्पतन्त्यधः ॥ २१ ॥
युधिष्ठिर
! न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्रसे ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवनका निर्वाह नहीं
कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके फेरमें पडक़र यह बेचारा घरकी चौकसी
करनेवाले कुत्तेके समान हो जाता है ॥ १८ ॥ जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण उसके तेज, विद्या,
तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है ॥ १९ ॥
भूख और प्यास मिट जानेपर खाने-पीनेकी कामनाका अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम
पूरा करके शान्त हो जाता है। परंतु यदि मनुष्य पृथ्वीकी समस्त दिशाओंको जीत ले और
भोग ले, तब भी लोभका अन्त नहीं होता ॥ २० ॥ अनेक विषयोंके
ज्ञाता, शङ्काओंका समाधान करके चित्तमें शास्त्रोक्त अर्थको
बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओंके सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोषके कारण गिर
जाते हैं ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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