॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
असङ्कल्पाज्जयेत्कामं
क्रोधं कामविवर्जनात्
अर्थानर्थेक्षया
लोभं भयं तत्त्वावमर्शनात् ॥ २२ ॥
आन्वीक्षिक्या
शोकमोहौ दम्भं महदुपासया
योगान्तरायान्मौनेन
हिंसां कामाद्यनीहया ॥ २३ ॥
कृपया
भूतजं दुःखं दैवं जह्यात्समाधिना
आत्मजं
योगवीर्येण निद्रां सत्त्वनिषेवया ॥ २४ ॥
रजस्तमश्च
सत्त्वेन सत्त्वं चोपशमेन च
एतत्सर्वं
गुरौ भक्त्या पुरुषो ह्यञ्जसा जयेत् ॥ २५ ॥
यस्य
साक्षाद्भगवति ज्ञानदीपप्रदे गुरौ
मर्त्यासद्धीः
श्रुतं तस्य सर्वं कुञ्जरशौचवत् ॥ २६ ॥
एष
वै भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः
योगेश्वरैर्विमृग्याङ्घ्रिर्लोको
यं मन्यते नरम् ॥ २७ ॥
धर्मराज
! संकल्पोंके परित्यागसे कामको, कामनाओंके त्यागसे क्रोधको,
संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ कहते
हैं उसे अनर्थ समझकर लोभको और तत्त्वके विचारसे भयको जीत लेना चाहिये ॥ २२ ॥
अध्यात्मविद्यासे शोक और मोहपर, संतोंकी उपासनासे दम्भपर,
मौनके द्वारा योगके विघ्रोंपर और शरीर-प्राण आदिको निश्चेष्ट करके
हिंसापर विजय प्राप्त करनी चाहिये ॥ २३ ॥ आधिभौतिक दु:खको दयाके द्वारा, आधिदैविक वेदनाको समाधिके द्वारा और आध्यात्मिक दु:खको योगबलसे एवं
निद्राको सात्त्विक भोजन, सथान, सङ्ग
आदिके सेवनसे जीत लेना चाहिये ॥ २४ ॥ सत्त्वगुणके द्वारा रजोगुण एवं तमोगुणपर और
उपरतिके द्वारा सत्त्वगुणपर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेवकी भक्तिके द्वारा
साधक इन सभी दोषोंपर सुगमतासे विजय प्राप्त कर सकता है ॥ २५ ॥ हृदयमें ज्ञानका
दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें
मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथीके स्नानके
समान व्यर्थ है ॥ २६ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलोंका अनुसन्धान करते रहते
हैं, प्रकृति और पुरुषके अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही
गुरुदेवके रूपमें प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रमसे मनुष्य मानते हैं ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः
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