॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
षड्वर्गसंयमैकान्ताः
सर्वा नियमचोदनाः
तदन्ता
यदि नो योगानावहेयुः श्रमावहाः ॥ २८ ॥
यथा
वार्तादयो ह्यर्था योगस्यार्थं न बिभ्रति
अनर्थाय
भवेयुः स्म पूर्तमिष्टं तथासतः ॥ २९ ॥
शास्त्रोंमें
जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है
कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर—इन छ:
शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन—ये छ: वशमें हो जायँ। ऐसा होनेपर भी यदि उन नियमोंके द्वारा भगवान्के
ध्यान-चिन्तन आदिकी प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल
श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ॥ २८ ॥ जैसे खेती, व्यापार आदि और
उनके फल भी योग-साधनाके फल भगवत्प्राप्ति या मुक्तिको नहीं दे सकते—वैसे ही दुष्ट पुरुषके श्रौत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते,
प्रत्युत उलटा फल देते हैं ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹🌼🌺जय श्री हरि: !!🙏🙏
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