गुरुवार, 15 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

यश्चित्तविजये यत्तः स्यान्निःसङ्गोऽपरिग्रहः
एको विविक्तशरणो भिक्षुर्भैक्ष्यमिताशनः ३०
देशे शुचौ समे राजन्संस्थाप्यासनमात्मनः
स्थिरं सुखं समं तस्मिन्नासीतर्ज्वङ्ग ओमिति ३१
प्राणापानौ सन्निरुन्ध्यात्पूरकुम्भकरेचकैः
यावन्मनस्त्यजेत्कामान्स्वनासाग्रनिरीक्षणः ३२
यतो यतो निःसरति मनः कामहतं भ्रमत्
ततस्तत उपाहृत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुधः ३३
एवमभ्यस्यतश्चित्तं कालेनाल्पीयसा यतेः
अनिशं तस्य निर्वाणं यात्यनिन्धनवह्निवत् ३४
कामादिभिरनाविद्धं प्रशान्ताखिलवृत्ति यत्
चित्तं ब्रह्मसुखस्पृष्टं नैवोत्तिष्ठेत कर्हिचित् ३५

जो पुरुष अपने मनपर विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रहका त्याग करके संन्यास ग्रहण करे। एकान्तमें अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्तिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ॥ ३० ॥ युधिष्ठिर ! पवित्र और समान भूमिपर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भावसे समान और सुखकर आसनसे उसपर बैठकर ॐकारका जप करे ॥ ३१ ॥ जबतक मन संकल्प-विकल्पोंको छोड़ न दे, तबतक नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचकद्वारा प्राण तथा अपानकी गतिको रोके ॥ ३२ ॥ कामकी चोटसे घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह वहाँ- वहाँसे उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदयमें रोके ॥ ३३ ॥ जब साधक निरन्तर इस प्रकारका अभ्यास करता है, तब र्ईंधनके बिना जैसे अग्रि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समयमें उसका चित्त शान्त हो जाता है ॥ ३४ ॥ इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्दके संस्पर्शमें मग्र हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता ॥ ३५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






1 टिप्पणी:

  1. हरि:शरणम् हरि:शरणम् हरि: शरणम् 🙏🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🌼🌹💐🥀🙏🙏

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