॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
यश्चित्तविजये
यत्तः स्यान्निःसङ्गोऽपरिग्रहः
एको
विविक्तशरणो भिक्षुर्भैक्ष्यमिताशनः ॥ ३० ॥
देशे
शुचौ समे राजन्संस्थाप्यासनमात्मनः
स्थिरं
सुखं समं तस्मिन्नासीतर्ज्वङ्ग ओमिति ॥ ३१ ॥
प्राणापानौ
सन्निरुन्ध्यात्पूरकुम्भकरेचकैः
यावन्मनस्त्यजेत्कामान्स्वनासाग्रनिरीक्षणः
॥
३२ ॥
यतो
यतो निःसरति मनः कामहतं भ्रमत्
ततस्तत
उपाहृत्य हृदि रुन्ध्याच्छनैर्बुधः ॥ ३३ ॥
एवमभ्यस्यतश्चित्तं
कालेनाल्पीयसा यतेः
अनिशं
तस्य निर्वाणं यात्यनिन्धनवह्निवत् ॥ ३४ ॥
कामादिभिरनाविद्धं
प्रशान्ताखिलवृत्ति यत्
चित्तं
ब्रह्मसुखस्पृष्टं नैवोत्तिष्ठेत कर्हिचित् ॥ ३५
॥
जो
पुरुष अपने मनपर विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यत हो, वह आसक्ति
और परिग्रहका त्याग करके संन्यास ग्रहण करे। एकान्तमें अकेला ही रहे और
भिक्षा-वृत्तिसे शरीर-निर्वाहमात्रके लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ॥ ३० ॥
युधिष्ठिर ! पवित्र और समान भूमिपर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भावसे समान और
सुखकर आसनसे उसपर बैठकर ॐकारका जप करे ॥ ३१ ॥ जबतक मन संकल्प-विकल्पोंको छोड़ न दे,
तबतक नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक
और रेचकद्वारा प्राण तथा अपानकी गतिको रोके ॥ ३२ ॥ कामकी चोटसे घायल चित्त इधर-उधर
चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुषको चाहिये कि
वह वहाँ- वहाँसे उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदयमें रोके ॥ ३३ ॥ जब साधक निरन्तर
इस प्रकारका अभ्यास करता है, तब र्ईंधनके बिना जैसे अग्रि
बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समयमें उसका चित्त शान्त हो जाता
है ॥ ३४ ॥ इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ
अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्दके
संस्पर्शमें मग्र हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता ॥ ३५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
हरि:शरणम् हरि:शरणम् हरि: शरणम् 🙏🙏🙏
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