॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
यः
प्रव्रज्य गृहात्पूर्वं त्रिवर्गावपनात्पुनः
यदि
सेवेत तान्भिक्षुः स वै वान्ताश्यपत्रपः ॥ ३६
॥
यैः
स्वदेहः स्मृतोऽनात्मा मर्त्यो विट्कृमिभस्मवत्
त
एनमात्मसात्कृत्वा श्लाघयन्ति ह्यसत्तमाः ॥ ३७
॥
गृहस्थस्य
क्रियात्यागो व्रतत्यागो वटोरपि
तपस्विनो
ग्रामसेवा भिक्षोरिन्द्रियलोलता ॥ ३८ ॥
आश्रमापसदा
ह्येते खल्वाश्रमविडम्बनाः
देवमायाविमूढांस्तानुपेक्षेतानुकम्पया
॥
३९ ॥
आत्मानं
चेद्विजानीयात्परं ज्ञानधुताशयः
किमिच्छन्कस्य
वा हेतोर्देहं पुष्णाति लम्पटः ॥ ४० ॥
जो
संन्यासी पहले तो धर्म,
अर्थ और कामके मूल कारण गृहस्थाश्रमका परित्याग कर देता है और फिर
उन्हींका सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुएको
खानेवाला कुत्ता ही है ॥ ३६ ॥ जिन्होंने अपने शरीरको अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था—वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं ॥ ३७ ॥
कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँवमें रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी—ये चारों आश्रमके कलङ्क हैं और व्यर्थ ही आश्रमोंका ढोंग करते हैं। भगवान्की
मायासे विमोहित उन मूढ़ोंपर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ॥ ३८-३९ ॥
आत्मज्ञानके द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी हैं और जिसने अपने आत्माको
परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषयकी इच्छा और किस
भोक्ताकी तृप्तिके लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीरका पोषण करेगा ? ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌺🌹💐जय श्री हरि: !!🙏🙏
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