ॐ
नमो भगवते वासुदेवाय
चतु:श्लोकी
भागवत
अहमेवासमेवाऽग्रे
नान्यद् यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं
यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥
ऋतेऽर्थं
यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्याद्
आत्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ २ ॥
यथा
महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टानि
अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३ ॥
एतावदेव
जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां
यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ४ ॥
सृष्टिके
पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण
अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस
सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ
और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ १ ॥ वास्तवमें न
होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी
तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होनेपर भी
आकाश-मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ॥ २ ॥ जैसे प्राणियोंके पञ्चभूतरचित छोटे-बड़े
शरीरोंमें आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश
करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण
प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी
दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने
अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ॥ ३ ॥ यह ब्रह्म
नहीं, यह ब्रह्म नहीं—इस प्रकार
निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह
ब्रह्म है—इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि
सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्माका तत्त्व जानना चाहते
हैं, उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है ॥ ४ ॥....(श्रीमद्भा०२|९|३२-३५)
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
🌺🌿🥀जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः 🙏🙏