॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
आहुः
शरीरं रथमिन्द्रियाणि
हयानभीषून्मन
इन्द्रियेशम्
वर्त्मानि
मात्रा धिषणां च सूतं
सत्त्वं
बृहद्बन्धुरमीशसृष्टम् ॥ ४१ ॥
अक्षं
दशप्राणमधर्मधर्मौ
चक्रेऽभिमानं
रथिनं च जीवम्
धनुर्हि
तस्य प्रणवं पठन्ति
शरं
तु जीवं परमेव लक्ष्यम् ॥ ४२ ॥
रागो
द्वेषश्च लोभश्च शोकमोहौ भयं मदः
मानोऽवमानोऽसूया
च माया हिंसा च मत्सरः ॥ ४३ ॥
रजः
प्रमादः क्षुन्निद्रा शत्रवस्त्वेवमादयः
रजस्तमःप्रकृतयः
सत्त्वप्रकृतयः क्वचित् ॥ ४४ ॥
उपनिषदों
में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियोंका स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग
हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान्
के द्वारा निर्मित बाँधने की विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी
हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा
गया है। ॐकार ही उस रथीका धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और
परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐकार के द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना
चाहिये) ॥ ४१-४२ ॥ राग, द्वेष, लोभ,
शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरेके गुणोंमें दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद—ये सब, और ऐसे ही जीवोंके और भी बहुत-से शत्रु हैं। उनमें
रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं
कोई-कोई सत्त्वगुणप्रधान ही होती हैं ॥ ४३-४४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐🌹💐जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏