॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – बारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
ब्रह्मचर्य
और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम
नारद
उवाच -
ब्रह्मचारी
गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम् ।
आचरन्
दासवत् नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः ॥ १ ॥
सायं
प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान् ।
सन्ध्ये
उभे च यतवाग् जपन्ब्रह्म समाहितः ॥ २ ॥
छन्दांस्यधीयीत
गुरोः आहूतश्चेत् सुयन्त्रितः ।
उपक्रमेऽवसाने
च चरणौ शिरसा नमेत् ॥ ३ ॥
मेखलाजिनवासांसि
जटादण्डकमण्डलून् ।
बिभृयाद्
उपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम् ॥ ४ ॥
सायं
प्रातश्चरेद्भैक्ष्यं गुरवे तन्निवेदयेत् ।
भुञ्जीत
यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत् क्वचित् ॥ ५ ॥
सुशीलो
मितभुग् दक्षः श्रद्दधानो जितेन्द्रियः ।
यावदर्थं
व्यवहरेत् स्त्रीषु स्त्रीनिर्जितेषु च ॥ ६ ॥
वर्जयेत्प्रमदागाथां
अगृहस्थो बृहद्व्रतः ।
इन्द्रियाणि
प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मनः ॥ ७ ॥
नारदजी
कहते हैं—धर्मराज ! गुरुकुल में निवास करने वाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में
रखकर दास के समान अपने को छोटा माने, गुरुदेव के चरणों में
सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हितके कार्य करता रहे ॥ १ ॥ सायंकाल और प्रात:काल गुरु,
अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओंकी उपासना करे
और मौन होकर एकाग्रतासे गायत्रीका जप करता हुआ दोनों समयकी सन्ध्या करे ॥ २ ॥
गुरुजी जब बुलावें तभी पूर्णतया अनुशासनमें रहकर उनसे वेदोंका स्वाध्याय करे।
पाठके प्रारम्भ और अन्तमें उनके चरणोंमें सिर टेककर प्रणाम करे ॥ ३ ॥ शास्त्रकी
आज्ञाके अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र,
जटा, दण्ड, कमण्डलु,
यज्ञोपवीत तथा हाथमें कुश धारण करे ॥ ४ ॥ सायंकाल और प्रात:काल
भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरुजीको समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा न दें तो उपवास कर ले ॥ ५ ॥ अपने शीलकी
रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामों को निपुणता के साथ करे। श्रद्धा रखे और
इन्द्रियों को अपने वशमें रखे। स्त्री और स्त्रियों के वश में रहने वालों के साथ
जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे ॥ ६ ॥ जो गृहस्थ
नहीं हैं और ब्रह्मचर्यका व्रत लिये हुए हैं, उसे
स्त्रियोंकी चर्चासे ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं। ये
प्रयत्नपूर्वक साधन करनेवालोंके मनको भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌼🍂🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
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