रविवार, 4 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

केशप्रसाधनोन्मर्द स्नपनाभ्यञ्जनादिकम् ।
गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः कारयेन्नात्मनो युवा ॥ ८ ॥
नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसमः पुमान् ।
सुतामपि रहो जह्याद् अन्यदा यावदर्थकृत् ॥ ९ ॥
कल्पयित्वाऽऽत्मना यावद् आभासमिदमीश्वरः ।
द्वैतं तावन्न विरमेत् ततो ह्यस्य विपर्ययः ॥ १० ॥
एतत् सर्वं गृहस्थस्य समाम्नातं यतेरपि ।
गुरुवृत्तिर्विकल्पेन गृहस्थस्यर्तुगामिनः ॥ ११ ॥
अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्द त्र्यवलेखामिषं मधु ।
स्रग् गन्धलेपालंकारान् त्यजेयुर्ये बृहद्व्रताः ॥ १२ ॥
उषित्वैवं गुरुकुले द्विजोऽधीत्यावबुध्य च ।
त्रयीं साङ्‌गोपनिषदं यावदर्थं यथाबलम् ॥ १३ ॥
दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरोः कामं यदीश्वरः ।
गृहं वनं वा प्रविशेत् प्रव्रजेत् तत्र वा वसेत् ॥ १४ ॥

युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियोंसे बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे ॥ ८ ॥ स्त्रियाँ आगके समान हैं और पुरुष घीके घड़ेके समान। एकान्तमें तो अपनी कन्याके साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्तमें न हो, तब भी आवश्यकताके अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये ॥ ९ ॥ जबतक यह जीव आत्मसाक्षात्कारके द्वारा इन देह और इन्द्रियोंको प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तबतक मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है’—यह द्वैत नहीं मिटता। और तबतक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्रीके संसर्गमें रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्यबुद्धि हो ही जायगी ॥ १० ॥
ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थके लिये और संन्यासीके लिये भी विहित हैं। गृहस्थके लिये गुरुकुलमें रहकर गुरुकी सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमनके कारण उसे वहाँसे अलग भी होना पड़ता है ॥ ११ ॥ जो ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सुरमा या तेल न लगावें। उबटन न मलें। स्त्रियोंके चित्र न बनावें। मांस और मद्यसे कोई सम्बन्ध न रखें। फूलोंके हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणोंका त्याग कर दें ॥ १२ ॥ इस प्रकार गुरुकुलमें निवास करके द्विजातिको अपनी शक्ति और आवश्यकताके अनुसार वेद, उनके अङ्गशिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदोंका अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥ १३ ॥ फिर यदि सामथ्र्य हो तो गुरुको मुँहमाँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञासे गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उसी आश्रममें रहे ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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