॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)
समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान् शङ्कर का विषपान
श्रीशुक उवाच
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः
सर्वभूतसुहृद्देव इदमाह सतीं प्रियाम् ॥ ३६ ॥
श्रीशिव उवाच
अहो बत भवान्येतत्प्रजानां पश्य वैशसम्
क्षीरोदमथनोद्भूतात्कालकूटादुपस्थितम् ॥ ३७ ॥
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद्दीनपरिपालनम् ॥ ३८ ॥
प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया ॥ ३९ ॥
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ॥ ४० ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! प्रजाका यह संकट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव
भगवान् शङ्कर के हृदय में कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह
बात कही ॥ ३६ ॥
शिवजीने कहा—देवि ! यह बड़े खेदकी बात है। देखो तो सही, समुद्र-मन्थन से निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दु:ख आ पड़ा
है ॥ ३७ ॥ ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय
मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामथ्र्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन-दु:खियोंकी रक्षा
करें ॥ ३८ ॥ सज्जन पुरुष अपने क्षणभङ्गुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके
प्राणकी रक्षा करते हैं। कल्याणि ! अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी
मोहित हो रहे हैं और एक- दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं ॥ ३९ ॥ उनके ऊपर जो
कृपा करता है,
उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब
भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर
जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता
हूँ,
जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ॥ ४० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएं🚩🚩🚩🕉️ नमः शिवाय ॐ 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि जय हो प्रभु जय हो
जवाब देंहटाएंJay shri harihar nath ji ki 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं🌼🍂💐जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंजय हो करुणामय उमापति नीलकंठ महादेव 🔱🌿🌸🙏🙏
ॐ नमः शिवाय 🌺🎋🌸🙏🙏