शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

श्रीशुक उवाच -
तेऽन्योन्यतोऽसुराः पात्रं हरन्तस्त्यक्तसौहृदाः ।
क्षिपन्तो दस्युधर्माण आयान्तीं ददृशुः स्त्रियम् ॥ १ ॥
अहो रूपमहो धाम अहो अस्या नवं वयः ।
इति ते तां अभिद्रुत्य पप्रच्छुर्जातहृच्छयाः ॥ २ ॥
का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कुतो वा किं चिकीर्षसि ।
कस्यासि वद वामोरु मथ्नतीव मनांसि नः ॥ ३ ॥
न वयं त्वामरैर्दैत्यैः सिद्धगन्धर्वचारणैः ।
नास्पृष्टपूर्वां जानीमो लोकेशैश्च कुतो नृभिः ॥ ४ ॥
नूनं त्वं विधिना सुभ्रूः प्रेषितासि शरीरिणाम् ।
सर्वेन्द्रियमनःप्रीतिं विधातुं सघृणेन किम् ॥ ५ ॥
सा त्वं नः स्पर्धमानानां एकवस्तुनि मानिनि ।
ज्ञातीनां बद्धवैराणां शं विधत्स्व सुमध्यमे ॥ ६ ॥
वयं कश्यपदायादा भ्रातरः कृतपौरुषाः ।
विभजस्व यथान्यायं नैव भेदो यथा भवेत् ॥ ७ ॥
इति उपामंत्रितो दैत्यैः मायायोषिद् वपुर्हरिः ।
प्रहस्य रुचिरापाङ्‌गैः निरीक्षन् इदमब्रवीत् ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! असुर आपस के सद्भाव और प्रेम को छोडक़र एक-दूसरे की निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृतका कलश छीन रहे थे। इसी बीचमें उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है ॥ १ ॥ वे सोचने लगे—‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीरमें से कितनी अद्भुत छटा छिटक रही है ! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो !बस, अब वे आपसकी लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगोंने काममोहित होकर उससे पूछा॥ २ ॥ कमलनयनी ! तुम कौन हो ? कहाँसे आ रही हो ? क्या करना चाहती हो ? सुन्दरी ! तुम किसकी कन्या हो ? तुम्हें देखकर हमारे मनमें खलबली मच गयी है ॥ ३ ॥ हम समझते हैं कि अबतक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालोंने भी तुम्हें स्पर्शतक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते ? ॥ ४ ॥ सुन्दरी ! अवश्य ही विधाताने दया करके शरीरधारियोंकी सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मनको तृप्त करनेके लिये तुम्हें यहाँ भेजा है ॥ ५ ॥ मानिनी ! वैसे हमलोग एक ही जातिके हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैरकी गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी ! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो ॥ ६ ॥ हम सभी कश्यपजीके पुत्र होनेके नाते सगे भाई हैं। हमलोगोंने अमृतके लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्यायके अनुसार निष्पक्षभावसे इसे बाँट दो, जिससे फिर हमलोगोंमें किसी प्रकारका झगड़ा न हो॥ ७ ॥ असुरोंने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीलासे स्त्री-वेष धारण करनेवाले भगवान्‌ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते हुए कहा ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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