॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्
का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना
मिथः कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम्
अहं पूर्वमहं पूर्वं न त्वं न त्वमिति प्रभो ॥ ३८ ॥
देवाः स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतवः
सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्मः सनातनः ॥ ३९ ॥
इति स्वान्प्रत्यषेधन्वै दैतेया जातमत्सराः
दुर्बलाः प्रबलान्राजन्गृहीतकलसान्मुहुः ॥ ४० ॥
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः
योषिद्रू पमनिर्देश्यं दधारपरमाद्भुतम् ॥ ४१ ॥
प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम्
समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम् ॥ ४२ ॥
नवयौवननिर्वृत्त स्तनभारकृशोदरम्
मुखामोदानुरक्तालि झङ्कारोद्विग्नलोचनम् ॥ ४३ ॥
बिभ्रत्सुकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम्
सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाङ्गदभूषितम् ॥ ४४ ॥
विरजाम्बरसंवीत नितम्बद्वीपशोभया
काञ्च्या प्रविलसद्वल्गु चलच्चरणनूपुरम् ॥ ४५ ॥
सव्रीडस्मितविक्षिप्त भ्रूविलासावलोकनैः
दैत्ययूथपचेतःसु काममुद्दीपयन्मुहुः ॥ ४६ ॥
परीक्षित् ! अमृतलोलुप दैत्योंमें उसके लिये आपसमें झगड़ा
खड़ा हो गया। सभी कहने लगे ‘पहले मैं
पीऊँगा,
पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं’ ॥ ३८ ॥ उनमें
जो दुर्बल थे,
वे उन बलवान् दैत्योंका विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथमें कर लिया था, वे ईष्र्यावश धर्मकी दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने
लगे कि ‘भाई ! देवताओंने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञभागके समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही
सनातनधर्म है’
॥ ३९-४० ॥ इस प्रकार इधर दैत्योंमें ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी और उधर सभी उपाय जानने- वालोंके स्वामी
चतुरशिरोमणि भगवान्ने अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय स्त्रीका रूप धारण किया ॥ ४१ ॥
शरीरका रंग नील कमलके समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही
आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूलसे सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख ॥ ४२ ॥ नयी जवानीके कारण स्तन
उभरे हुए थे और उन्हींके भारसे कमर पतली हो गयी थी। मुखसे निकलती हुई सुगन्धके
प्रेमसे गुनगुनाते हुए भौंरे उसपर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रोंमें कुछ घबराहटका भाव आ जाता था ॥ ४३ ॥ अपने लंबे केशपाशोंमें
उन्होंने खिले हुए बेलेके पुष्पोंकी माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गलेमें कण्ठके आभूषण
और सुन्दर भुजाओंमें बाजूबंद सुशोभित थे ॥ ४४ ॥ इनके चरणोंके नूपुर मधुर ध्वनिसे
रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ीसे ढके नितम्बद्वीपपर शोभायमान करधनी अपनी
अनूठी छटा छिटका रही थी ॥ ४५ ॥ अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलासभरी चितवनसे मोहिनी-रूपधारी भगवान्
दैत्यसेनापतियोंके चित्तमें बार-बार कामोद्दीपन करने लगे ॥ ४६ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे
भगवन्मायोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
सादर नमन
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम जय हो
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएं🍂💖🌼 जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण हरि नारायण
Om namo narayanay 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं‼️ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‼️
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