॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट१०)
देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थन
के लिये उद्योग करना
ततस्ते
मन्दरगिरिं ओजसोत्पाट्य दुर्मदाः ।
नदन्त
उदधिं निन्युः शक्ताः परिघबाहवः ॥ ३३ ॥
दूरभारोद्वहश्रान्ताः
शक्रवैरोचनादयः ।
अपारयन्तस्तं
वोढुं विवशा विजहुः पथि ॥ ३४ ॥
निपतन्स
गिरिस्तत्र बहून् अमरदानवान् ।
चूर्णयामास
महता भारेण कनकाचलः ॥ ३५ ॥
तांस्तथा
भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान् ।
विज्ञाय
भगवान् तत्र बभूव गरुडध्वजः ॥ ३६ ॥
गिरिपातविनिष्पिष्टान्
विलोक्यामरदानवान् ।
ईक्षया
जीवयामास निर्जरान् निर्व्रणान्यथा ॥ ३७ ॥
गिरिं
चारोप्य गरुडे हस्तेनैकेन लीलया ।
आरुह्य
प्रययावब्धिं सुरासुरगणैर्वृतः ॥ ३८ ॥
अवरोप्य
गिरिं स्कन्धात् सुपर्णः पततां वरः ।
ययौ
जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः ॥ ३९ ॥
इसके बाद उन्होंने अपनी शक्तिसे मन्दराचलको उखाड़ लिया और
ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतटकी ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघके समान थीं, शरीरमें शक्ति थी और अपने-अपने बलका घमंड तो था ही ॥ ३३ ॥
परंतु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था।
इससे इन्द्र,
बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचलको
आगे न ले जा सके,
तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्तेमें ही पटक दिया ॥ ३४ ॥ वह
सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको
चकनाचूर कर डाला ॥ ३५ ॥
उन देवता और असुरोंके हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट
गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये ॥
३६ ॥ उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वतके गिरनेसे पिस गये हैं। अत: उन्होंने
अपनी अमृतमयी दृष्टिसे देवताओंको इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीरमें बिलकुल चोट ही न लगी हो ॥ ३७ ॥ इसके बाद
उन्होंने खेल-ही-खेलमें एक हाथसे उस पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख लिया और स्वयं भी
सवार हो गये। फिर देवता और असुरोंके साथ उन्होंने समुद्रतटकी यात्रा की ॥ ३८ ॥
पक्षिराज गरुडऩे समुद्रके तटपर पर्वतको उतार दिया। फिर भगवान् के विदा करनेपर
गरुडज़ी वहाँसे चले गये ॥ ३९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे
मंदराचल आनयनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
जय श्री हरि जय हो
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि
जवाब देंहटाएं🌼💖🌹🌾जय श्री हरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत है हर लीला तुम्हारी
नारायण नारायण नारायण नारायण
ॐनमो भगवते वासुदेवाय 🌷🥀🙏🙏