॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और
भगवान् का उस पर प्रसन्न होना
श्रीप्रह्लाद
उवाच
त्वयैव
दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं
हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम् ।
मन्ये
महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो
विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात् ॥ १६ ॥
यया
हि विद्वानपि मुह्यते यतः
तत् को विचष्टे गतिमात्मनो यथा ।
तस्मै
नमस्ते जगदीश्वराय वै
नारायणायाखिललोकसाक्षिणे ॥ १७ ॥
प्रह्लादजीने कहा—प्रभो ! आपने ही बलिको यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी ! मैं समझता हूँ कि आपने इसपर बड़ी
भारी कृपा की है,
जो आत्माको मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मीसे इसे अलग कर दिया ॥
१६ ॥ प्रभो। लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते
भला,
अपने वास्तविक स्वरूपको ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? अत: उस लक्ष्मीको छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त जगत् के महान् ईश्वर, सबके हृदय में विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता
हूँ ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay ßhree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
जवाब देंहटाएं🌹💖🥀🍂 जय श्री हरि: 🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे करुणामय दीन बंधु दीनानाथ
नारायण नारायण नारायण नारायण
लक्ष्मी छीनना, श्री हरि का महान अनुग्रह।
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
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