बुधवार, 20 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृतः
     तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः ।
त्वं अर्कदृक् सर्वदृशां समीक्षणो
     वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम् ॥ ५० ॥
जनो जनस्यादिशतेऽसतीं गतिं
     यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः ।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
     प्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ॥ ५१ ॥
त्वं सर्वलोकस्य सुहृत् प्रियेश्वरो
     ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः ।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधीः
     जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः ॥ ५२ ॥
तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
     प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय ।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभिः
     ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः ॥ ५३ ॥

जैसे कोई अंधा अंधेको ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानीको ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्यके समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्वके जिज्ञासु आपको ही गुरुके रूपमें वरण करते हैं ॥ ५० ॥ अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियोंको जिस ज्ञानका उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परंतु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ॥ ५१ ॥ आप सारे लोकके सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है। फिर भी कामनाओं के बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बात का पता ही नहीं है कि आप उनके हृदयमें ही विराजमान् हैं ॥ ५२ ॥ आप देवताओंके भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आया हूँ। भगवन् ! आप परमार्थको प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हृदयकी ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




3 टिप्‍पणियां:

  1. 🌺🍂🌼 जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    जय श्री राधे गोविन्द

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