॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)
भगवान् के मत्स्यावतार की कथा
श्रीशुक उवाच -
इत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवान् आदिपूरुषः ।
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरन् तत्त्वमब्रवीत् ॥ ५४ ॥
पुराणसंहितां दिव्यां सांख्ययोगक्रियावतीम् ।
सत्यव्रतस्य राजर्षेः आत्मगुह्यमशेषतः ॥ ५५ ॥
अश्रौषीद् ऋषिभिः साकं आत्मतत्त्वं असंशयम् ।
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम् ॥ ५६ ॥
अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे ।
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान्प्रत्याहरद्धरिः ॥ ५७ ॥
स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः ।
विष्णोः प्रसादात् कल्पेऽस्मिन् आसीत् वैवस्वतो मनुः ॥ ५८ ॥
सत्यव्रतस्य राजर्षेः मायामत्स्यस्य शार्ङ्गिणः ।
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात् ॥ ५९ ॥
अवतारं हरेर्योऽयं कीर्तयेद् अन्वहं नरः ।
संकल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम् ॥ ६० ॥
प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः
श्रुतिगणमपनीतं
प्रत्युपादत्त हत्वा ।
दितिजमकथयद् यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
तमहमखिलहेतुं
जिह्ममीनं नतोऽस्मि ॥ ६१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! जब राजा सत्यव्रत ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तम भगवान् ने प्रलयके समुद्र में
विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश किया ॥ ५४ ॥ भगवान्ने राजर्षि
सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्म- योग से परिपूर्ण दिव्य पुराण का उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं ॥ ५५ ॥ सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए
ही सन्देहरहित होकर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्म- तत्त्व का
श्रवण किया ॥ ५६ ॥ इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद
टूटी,
तब भगवान्ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और
ब्रह्माजीको दे दिये ॥ ५७ ॥ भगवान्की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त
होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए ॥ ५८ ॥ अपनी योगमायासे मत्स्यरूप धारण करनेवाले
भगवान् विष्णु और राजर्षि सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य
सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य भगवान्के इस अवतारका
प्रतिदिन कीर्तन करता है,
उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी
प्राप्ति होती है ॥ ६० ॥ प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव
दैत्य पातालमें ले गया था। भगवान्ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं
एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत्के परम
कारण लीलामत्स्य भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मत्यावतारचरितानुवर्णनं चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
२४ ॥
॥ इति अष्टम स्कन्ध समाप्त ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌹💖🥀जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
लीला मत्स्य भगवान नारायण श्री
हरि: को सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: चरण वंदन