मंगलवार, 12 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

श्रीशुक उवाच -
इत्युक्तवन्तं पुरुषं पुरातनं
     महानुभावोऽखिलसाधुसंमतः ।
बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो
     भक्त्युत्कलो गद्‍गदया गिराब्रवीत् ॥ १ ॥

श्रीबलिरुवाच -
अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः
     प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः ।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरैः
     अलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः ॥ २ ॥

श्रीशुक उवाच -
इत्युक्त्वा हरिमानत्य ब्रह्माणं सभवं ततः ।
विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः सहासुरैः ॥ ३ ॥
एवं इन्द्राय भगवान् प्रत्यानीय त्रिविष्टपम् ।
पूरयित्वादितेः कामं अशासत् सकलं जगत् ॥ ४ ॥
लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम् ।
निशाम्य भक्तिप्रवणः प्रह्राद इदमब्रवीत् ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब सनातनपुरुष भगवान्‌ ने इस प्रकार कहा, तो साधुओंके आदरणीय महानुभाव दैत्यराजके नेत्रोंमें आँसू छलक आये। प्रेमके उद्रेक से उनका गला भर आया। वे हाथ जोडक़र गद्गद वाणीसे भगवान्‌से कहने लगे ॥ १ ॥
बलिने कहाप्रभो ! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेमात्रकी चेष्टाभर की। इसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणोंके शरणागत भक्तोंको प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओंपर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ-जैसे नीच असुरको सहज ही प्राप्त हो गयी ॥ २ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यों कहते ही बलि वरुणके पाशोंसे मुक्त हो गये। तब उन्होंने भगवान्‌, ब्रह्माजी और शङ्करजीको प्रणाम किया और इसके बाद बड़ी प्रसन्नतासे असुरोंके साथ सुतल लोककी यात्रा की ॥ ३ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ने बलिसे स्वर्गका राज्य लेकर इन्द्रको दे दिया, अदितिकी कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत्का शासन करने लगे ॥ ४ ॥ जब प्रह्लादने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धनसे छूट गये और उन्हें भगवान्‌का कृपाप्रसाद प्राप्त हो गया, तो वे भक्ति-भावसे भर गये। उस समय उन्होंने भगवान्‌की इस प्रकार स्तुति की ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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