॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०२)
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा
अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल ।
मित्रावरुणयोः इष्टिं प्रजार्थं अकरोद् विभुः ॥ १३ ॥
तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत ।
दुहित्रर्थं उपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता ॥ १४ ॥
प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायन् तत् सुसमाहितः ।
हविषि व्यचरत् तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः ॥ १५ ॥
होतुस्तद् व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत् ।
तां विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम् ॥ १६ ॥
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम् ।
विपर्ययं अहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया ॥ १७ ॥
यूयं मंत्रविदो युक्ताः तपसा दग्धकिल्बिषाः ।
कुतः संकल्पवैषम्यं अनृतं विबुधेष्विव ॥ १८ ॥
वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठने उन्हें सन्तान-प्राप्ति करानेके लिये मित्रावरुणका यज्ञ कराया था ॥ १३ ॥ यज्ञके आरम्भमें केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनुकी धर्मपत्नी श्रद्धाने अपने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो ॥ १४ ॥ तब अध्वर्युकी प्रेरणासे होता बने हुए ब्राह्मणने श्रद्धाके कथनका स्मरण करके एकाग्र चित्तसे वषट्कारका उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्डमें आहुति दी ॥ १५ ॥ जब होताने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञके फलस्वरूप पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनुका मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे कहा— ॥ १६ ॥ ‘भगवन् ! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दु:खकी बात है। वैदिक कर्मका ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये ॥ १७ ॥ आप लोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चुके हैं। देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके संकल्पका यह उलटा फल कैसे हुआ ?’ ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंॐ नमो नारायण,🙏🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🎋🌷🥀 जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण