गुरुवार, 21 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल ।
मित्रावरुणयोः इष्टिं प्रजार्थं अकरोद् विभुः ॥ १३ ॥
तत्र श्रद्धा मनोः पत्‍नी होतारं समयाचत ।
दुहित्रर्थं उपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता ॥ १४ ॥
प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायन् तत् सुसमाहितः ।
हविषि व्यचरत् तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः ॥ १५ ॥
होतुस्तद् व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत् ।
तां विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम् ॥ १६ ॥
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम् ।
विपर्ययं अहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया ॥ १७ ॥
यूयं मंत्रविदो युक्ताः तपसा दग्धकिल्बिषाः ।
कुतः संकल्पवैषम्यं अनृतं विबुधेष्विव ॥ १८ ॥

वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान्‌ वसिष्ठने उन्हें सन्तान-प्राप्ति करानेके लिये मित्रावरुणका यज्ञ कराया था ॥ १३ ॥ यज्ञके आरम्भमें केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनुकी धर्मपत्नी श्रद्धाने अपने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो ॥ १४ ॥ तब अध्वर्युकी प्रेरणासे होता बने हुए ब्राह्मणने श्रद्धाके कथनका स्मरण करके एकाग्र चित्तसे वषट्कारका उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्डमें आहुति दी ॥ १५ ॥ जब होताने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञके फलस्वरूप पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनुका मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे कहा॥ १६ ॥ भगवन् ! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दु:खकी बात है। वैदिक कर्मका ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये ॥ १७ ॥ आप लोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चुके हैं। देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके संकल्पका यह उलटा फल कैसे हुआ ?’ ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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