॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०३)
वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा
निशम्य तद्वचः तस्य भगवान् प्रपितामहः ।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम् ॥ १९ ॥
एतत् संकल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः ।
तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा ॥ २० ॥
एवं व्यवसितो राजन् भगवान् स महायशाः ।
अस्तौषीद् आदिपुरुषं इलायाः पुंस्त्वकाम्यया ॥ २१ ॥
तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान् हरिरीश्वरः ।
ददौ इविलाभवत् तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः ॥ २२ ॥
स एकदा महाराज विचरन् मृगयां वने ।
वृतः कतिपयामात्यैः अश्वं आरुह्य सैन्धवम् ॥ २३ ॥
प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्भुतान् ।
दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम् ॥ २४ ॥
सु कुमातो वनं मेरोः अधस्तात् प्रविवेश ह ।
यत्रास्ते भगवान् शर्वो रममाणः सहोमया ॥ २५ ॥
तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा ।
अपश्यत् स्त्रियमात्मानं अश्वं च वडवां नृप ॥ २६ ॥
तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्ग विपर्ययम् ।
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् विक्षमाणाः परस्परम् ॥ २७ ॥
परीक्षित् ! हमारे वृद्धप्रपितामह भगवान् वसिष्ठ ने उनकी यह बात
सुनकर जान लिया कि होता ने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनुसे
कहा— ॥ १९ ॥ ‘राजन् ! तुम्हारे
होता के विपरीत संकल्पसे ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तपके
प्रभाव से मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’ ॥ २० ॥
परीक्षित् ! परम यशस्वी भगवान् वसिष्ठ ने ऐसा निश्चय करके उस इला नामकी कन्याको
ही पुरुष बना देनेके लिये पुरुषोत्तम भगवान् नारायणकी स्तुति की ॥ २१ ॥
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया,
जिसके प्रभावसे वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी ॥
२२ ॥
महाराज ! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलनेके लिये सिन्धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वनमें गये ॥ २३ ॥ वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथमें सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनोंका पीछा करते हुए उत्तर दिशामें बहुत आगे बढ़ गये ॥ २४ ॥ अन्तमें सुद्युम्न मेरुपर्वतकी तलहटी के एक वनमें चले गये। उस वनमें भगवान् शङ्कर पार्वतीके साथ विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्न ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! साथ ही उनके सब अनुचरोंने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा। वे सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ॥ २७ ॥
महाराज ! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलनेके लिये सिन्धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वनमें गये ॥ २३ ॥ वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथमें सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनोंका पीछा करते हुए उत्तर दिशामें बहुत आगे बढ़ गये ॥ २४ ॥ अन्तमें सुद्युम्न मेरुपर्वतकी तलहटी के एक वनमें चले गये। उस वनमें भगवान् शङ्कर पार्वतीके साथ विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्न ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! साथ ही उनके सब अनुचरोंने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा। वे सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ॥ २७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌺🙏
जवाब देंहटाएं🌼💐🥀जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण