मंगलवार, 26 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र,राजा शर्याति का वंश

श्रीशुक उवाच ।
शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः संबभूव ह ।
यो वा अंगिरसां सत्रे द्वितीयं अह ऊचिवान् ॥ १ ॥
सुकन्या नाम तस्यासीत् कन्या कमललोचना ।
तया सार्धं वनगतो हि अगमत् व्यवनाश्रमम् ॥ २ ॥
सा सखीभिः परिवृता विचिन्वन्त्यंघ्रिपान् वने ।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी ॥ ३ ॥
ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै ।
अविध्यन् मुग्धभावेन सुस्रावासृक् ततो बहिः ॥ ४ ॥
शकृत् मूत्रनिरोधोऽभूत् सैनिकानां च तत्क्षणात् ।
राजर्षिः तं उपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत् ॥ ५ ॥
अप्यभद्रं न युष्माभिः भार्गवस्य विचेष्टितम् ।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतं आश्रमदूषणम् ॥ ६ ॥
सुकन्या प्राह पितरं भीता किञ्चित् कृतं मया ।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै ॥ ७ ॥
दुहितुस्तद् वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः ।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनैः ॥ ८ ॥
तद् अभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद् दुहितरं मुनेः ।
कृच्छ्रात् मुक्तः तमामंत्र्य पुरं प्रायात् समाहितः ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदोंका निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अङ्गिरा-गोत्रके ऋषियोंके यज्ञमें दूसरे दिनका कर्म बतलाया था ॥ १ ॥ उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या। एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्याके साथ वनमें घूमते- घूमते च्यवन ऋषिके आश्रमपर जा पहुँचे ॥ २ ॥ सुकन्या अपनी सखियोंके साथ वनमें घूम-घूमकर वृक्षोंका सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थानपर देखा कि बाँबी (दीमकोंकी एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेदमेंसे जुगनूकी तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं ॥ ३ ॥ दैवकी कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्याने बालसुलभ चपलतासे एक काँटेके द्वारा उन ज्योतियोंको वेध दिया। इससे उनमेंसे बहुत- सा-खून बह चला ॥ ४ ॥ उसी समय राजा शर्यातिके सैनिकोंका मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्यातिको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकोंसे कहा ॥ ५ ॥ अरे, तुम लोगों ने कहीं महर्षि च्यवनजी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया ? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगोंमेंसे किसी-न-किसीने उनके आश्रममें कोई अनर्थ किया है॥ ६ ॥ तब सुकन्याने अपने पिता से डरते-डरते कहा कि पिताजी ! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया है ॥ ७ ॥ अपनी कन्याकी यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबीमें छिपे हुए च्यवन मुनिको प्रसन्न किया ॥ ८ ॥ तदनन्तर च्यवन मुनिका अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकटसे छूटकर बड़ी सावधानीसे उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानीमें चले आये ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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