॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और
भगवान् का उस पर प्रसन्न होना
श्रीशुक उवाच -
एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः ।
भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः ॥ १ ॥
श्रीबलिरुवाच -
यद्युत्तमश्लोक भवान्ममेरितं
वचो व्यलीकं
सुरवर्य मन्यते ।
करोम्यृतं तन्न भवेत्प्रलम्भनं
पदं तृतीयं
कुरु शीर्ष्णि मे निजम् ॥ २ ॥
बिभेमि नाहं निरयात् पदच्युतो
न
पाशबन्धाद्व्यसनाद् दुरत्ययात् ।
नैवार्थकृच्छ्राद्भवतो विनिग्रहाद्
असाधुवादाद्भृशमुद्विजे
यथा ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् ने असुरराज बलिका बड़ा तिरस्कार किया और
उन्हें धैर्यसे विचलित करना चाहा। परंतु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्यसे बोले ॥ १ ॥
दैत्यराज बलिने कहा—देवताओंके आराध्यदेव ! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बातको असत्य
समझते हैं ?
ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखेमें नहीं
पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिरपर रख दीजिये ॥ २ ॥ मुझे नरकमें
जानेका अथवा राज्यसे च्युत होनेका भय नहीं है। मैं पाशमें बँधने अथवा अपार दु:खमें
पडऩेसे भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें—यह भी मेरे भयका कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी
अपकीर्तिसे ! ॥ ३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
जवाब देंहटाएंJay shre Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌸🥀💐जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण