॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
बलि का बाँधा जाना
श्रीशुक उवाच
पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः
रसां निर्विविशू राजन्विष्णुपार्षद ताडिताः ॥ २५ ॥
अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट्प्रभुचिकीर्षितम्
बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सूत्येऽहनि क्रतौ ॥ २६ ॥
हाहाकारो महानासीद्रोदस्योः सर्वतो दिशम्
निगृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ २७
तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप ॥ २८ ॥
पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय ॥ २९ ॥
यावत्तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः
यावद्वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव ॥ ३० ॥
पदैकेन मयाक्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः
स्वर्लोकस्ते द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना ॥ ३१ ॥
प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते
विश त्वं निरयं तस्माद्गुरुणा चानुमोदितः ॥ ३२ ॥
वृथा मनोरथस्तस्य दूरः स्वर्गः पतत्यधः
प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते ॥ ३३ ॥
विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना
तद्व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित्समाः ॥ ३४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! अपने स्वामी बलिकी बात सुनकर भगवान् के पार्षदों से हारे हुए
दानव और दैत्यसेनापति रसातल में चले गये ॥ २५ ॥ उनके जानेके बाद भगवान्के हृदयकी
बात जानकर पक्षिराज गरुडऩे वरुणके पाशों से बलिको बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध
यज्ञमें सोमपान होनेवाला था ॥ २६ ॥ जब सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु ने बलिको इस
प्रकार बँधवा दिया,
तब पृथ्वी, आकाश और समस्त
दिशाओंमें लोग ‘हाय-हाय !’ करने लगे ॥ २७
॥ यद्यपि बलि वरुणके पाशोंसे बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथोंसे निकल गयी थी—फिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यशका गान कर रहे थे।
परीक्षित् ! उस समय भगवान्ने बलिसे कहा ॥ २८ ॥ ‘असुर ! तुमने मुझे पृथ्वीके तीन पग दिये थे; दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो ॥ २९ ॥ जहाँतक सूर्यकी गरमी पहुँचती है, जहाँतक नक्षत्रों और चन्द्रमाकी किरणें पहुँचती हैं और
जहाँतक बादल जाकर बरसते हैं—वहाँ- तककी
सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें थी ॥ ३० ॥ तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक
पैरसे भूर्लोक,
शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्लोक नाप लिया
है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है ॥ ३१ ॥ फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा
की थी,
उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा।
तुम्हारे गुरुकी तो इस विषयमें सम्मति है ही; अब जाओ,
तुम नरकमें प्रवेश करो ॥ ३२ ॥ जो याचकको देनेकी प्रतिज्ञा
करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्गकी बात तो दूर रही, उसे नरकमें गिरना पड़ता है ॥ ३३ ॥ तुम्हें इस बातका बड़ा
घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे ‘दूँगा’—
ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षोंतक
इस झूठका फल नरक भोगो’
॥ ३४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे
वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌸💖🌷जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हरि: ॐ तत्सत