रविवार, 1 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

दुर्वासा यमुनाकूलात् कृत आवश्यक आगतः ।
 राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया ॥ ४२ ॥
 मन्युना प्रचलद्‍गात्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः ।
 बुभुक्षितश्च सुतरां कृताञ्जलिमभाषत ॥ ४३ ॥
 अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत ।
 धर्मव्यतिक्रमं विष्णोः अभक्तस्य ईशमानिनः ॥ ४४ ॥
 यो मां अतिथिं आयातं आतिथ्येन निमंत्र्य च ।
 अदत्त्वा भुक्तवान् तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम् ॥ ४५ ॥
 एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषप्रदीपितः ।
 तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम् ॥ ४६ ॥
 तां आपतन्तीं ज्वलतीं असिहस्तां पदा भुवम् ।
 वेपयन्तीं समुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः ॥ ४७ ॥
 प्राग् दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना ।
 ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः ॥ ४८ ॥
 तद् अभिद्रवद् उद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम् ।
 दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया ॥ ४९ ॥
 तमन्वधावद्‍भगवद्रथांगं
     दावाग्निः उद्धूतशिखो यथाहिम् ।
 तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणो
     गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः ॥ ५० ॥

दुर्वासा जी आवश्यक कर्मोंसे निवृत्त होकर यमुनातट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढक़र उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है ॥ ४२ ॥ उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजाने पारण कर लिया है, वे क्रोधसे थर-थर काँपने लगे। भौंहोंके चढ़ जानेसे उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोडक़र खड़े अम्बरीषसे डाँटकर कहा ॥ ४३ ॥ अहो ! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है ! यह धनके मदमें मतवाला हो रहा है। भगवान्‌की भक्ति तो इसे छूतक नहीं गयी और यह अपनेको बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्मका उल्लङ्घन करके बड़ा अन्याय किया है ॥ ४४ ॥ देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि-सत्कार करनेके लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ॥ ४५ ॥ यों कहते-कहते वे क्रोधसे जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीषको मार डालनेके लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलय-कालकी आगके समान दहक रही थी ॥ ४६ ॥ वह आगके समान जलती हुई, हाथमें तलवार लेकर राजा अम्बरीषपर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी काँप रही थी। परंतु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे ॥ ४७ ॥ परमपुरुष परमात्माने अपने सेवककी रक्षाके लिये पहलेसे ही सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोधसे गुर्राते हुए साँपको भस्म कर देती है, वैसे ही चक्रने दुर्वासाजीकी कृत्याको जलाकर राखका ढेर कर दिया ॥ ४८ ॥ जब दुर्वासाजीने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचानेके लिये जी छोडक़र एकाएक भाग निकले ॥ ४९ ॥ जैसे ऊँची-ऊँची लपटोंवाला दावानल साँपके पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान्‌ का चक्र उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। जब दुर्वासाजीने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वतकी गुफामें प्रवेश करनेके लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े ॥ ५० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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