॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की
कथा
इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन् त्रितचेतसा ।
कालं वञ्चयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत ॥ १५ ॥
रोहितस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम् ।
प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिः अरण्यं प्रत्यपद्यत ॥ १६ ॥
पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम् ।
रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्रः प्रत्यषेधत ॥ १७ ॥
भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः ।
रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत् समाम् ॥ १८ ॥
एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे तथा ।
अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाऽऽह वृत्रहा ॥ १९ ॥
षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम् ।
उपव्रजन् अजीगर्ताद् अक्रीणान् मध्यमं सुतम् ॥ २० ॥
शुनःशेपं पशुं पित्रे प्रदाय समवन्दत ।
ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रो महायशाः ॥ २१ ॥
मुक्तोदरोऽयजद् देवान् वरुणादीन् महत्कथः ।
विश्वामित्रोऽभवत् तस्मिन् होता चाध्वर्युरात्मवान् ॥ २२ ॥
जमदग्निरभूद् ब्रह्मा वसिष्ठोऽयास्यः सामगः ।
तस्मै तुष्टो ददौ इन्द्रः शातकौम्भमयं रथम् ॥ २३ ॥
परीक्षित् ! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्रके प्रेमसे
हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके
हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुणदेवता उसीकी बाट देखते ॥ १५ ॥ जब
रोहितको इस बातका पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं,
तब वह अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये हाथमें धनुष लेकर वनमें चला गया
॥ १६ ॥ कुछ दिनके बाद उसे मालूम हुआ कि वरुणदेवताने रुष्ट होकर मेरे पिताजीपर
आक्रमण किया है—जिसके कारण वे महोदर रोगसे पीडि़त हो रहे हैं,
तब रोहित अपने नगरकी ओर चल पड़ा। परंतु इन्द्रने आकर उसे रोक दिया ॥
१७ ॥ उन्होंने कहा—‘बेटा रोहित ! यज्ञपशु बनकर मरनेकी
अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रोंका सेवन करते हुए पृथ्वीमें विचरना ही अच्छा
है।’ इन्द्रकी बात मानकर वह एक वर्षतक और वनमें ही रहा ॥ १८
॥ इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और
पाँचवें वर्ष भी रोहितने अपने पिताके पास जानेका विचार किया; परंतु बूढ़े ब्राह्मणका वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते ॥
१९ ॥ इस प्रकार छ: वर्षतक रोहित वनमें ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगरको लौटने
लगा, तब उसने अजीगर्तसे उनके मझले पुत्र शुन: शेपको मोल ले
लिया और उसे यज्ञपशु बनानेके लिये अपने पिताको सौंपकर उनके चरणोंमें नमस्कार किया।
तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्रवाले राजा हरिश्चन्द्रने महोदर रोगसे छूटकर
पुरुषमेध यज्ञद्वारा वरुण आदि देवताओंका यजन किया। उस यज्ञमें विश्वामित्रजी होता
हुए। परम संयमी जमदग्नि ने अध्वर्यु का काम किया। वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य
मुनि सामगान करनेवाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्रने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्रको एक
सोनेका रथ दिया था ॥ २०—२३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌺🍂🌼 जय श्री हरि: 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय