॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण
श्रीराजोवाच ।
किं निमित्तो गुरोः शापः सौदासस्य महात्मनः ।
एतद् वेदितुमिच्छामः कथ्यतां न रहो यदि ॥ १९ ॥
श्रीशुक उवाच ।
सौदासो मृगयां किञ्चित् चरन् रक्षो जघान ह ।
मुमोच भ्रातरं सोऽथ गतः प्रतिचिकीर्षया ॥ २० ॥
सञ्चिन्तयन् अघं राज्ञः सूदरूपधरो गृहे ।
गुरवे भोक्तुकामाय पक्त्वा निन्ये नरामिषम् ॥ २१ ॥
परिवेक्ष्यमाणं भगवान् विलोक्य अभक्ष्यमञ्जसा ।
राजानं अशपत् क्रुद्धो रक्षो ह्येवं भविष्यसि ॥ २२ ॥
रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे द्वादशवार्षिकम् ।
सोऽपि अपोऽञ्जलिनादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥ २३ ॥
वारितो मदयन्त्यापो रुशतीः पादयोर्जहौ ।
दिशः खमवनीं सर्वं पश्यन् जीवमयं नृपः ॥ २४ ॥
राक्षसं भावमापन्नः पादे कल्माषतां गतः ।
व्यवायकाले ददृशे वनौकोदम्पती द्विजौ ॥ २५ ॥
क्षुधार्तो जगृहे विप्रं तत्पत्न्याहाकृतार्थवत् ।
न भवान् राक्षसः साक्षात् इक्ष्वाकूणां महारथः ॥ २६ ॥
मदयन्त्याः पतिर्वीर नाधर्मं कर्तुमर्हसि ।
देहि मेऽपत्यकामाया अकृतार्थं पतिं द्विजम् ॥ २७ ॥
देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।
तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥
एष हि ब्राह्मणो विद्वान् तपःशीलगुणान्वितः ।
आरिराधयिषुर्ब्रह्म महापुरुषसंज्ञितम् ।
सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वन्तर्हितं गुणैः ॥ २९ ॥
सोऽयं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते राजर्षिप्रवराद् विभो ।
कथमर्हति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मजः ॥ ३० ॥
तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिनः ।
कथं वधं यथा बभ्रोः मन्यते सन्मतो भवान् ॥ ३१ ॥
यइ अयं क्रियते भक्षः तर्हि मां खाद पूर्वतः ।
न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं यथा ॥ ३२ ॥
एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या अनाथवत् ।
व्याघ्रः पशुमिवाखादत् सौदासः शापमोहितः ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषुं पुरुषादेन भक्षितम् ।
शोचन्ति आत्मानमुर्वीशं अशपत् कुपिता सती ॥ ३४ ॥
यस्मान्मे भक्षितः पाप कामार्तायाः पतिस्त्वया ।
तवापि मृत्युः आधानाद् अकृतप्रज्ञ दर्शितः ॥ ३५ ॥
एवं मित्रसहं शप्त्वा पतिलोकपरायणा ।
तदस्थीनि समिद्धेऽग्नौ प्रास्य भर्तुर्गतिं गता ॥ ३६ ॥
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्
! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदास को गुरु वसिष्ठजी ने शाप क्यों दिया।
यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित् ! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षसको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दिया। उसने राजाके इस कामको अन्याय समझा और उनसे भाईकी मृत्युका बदला लेनेके लिये वह रसोइयेका रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करनेके लिये गुरु वसिष्ठजी राजाके यहाँ आये, तब उसने मनुष्यका मांस राँधकर उन्हें परस दिया ॥ २०-२१ ॥ जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजीने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजाको शाप दिया कि ‘जा, इस कामसे तू राक्षस हो जायगा’ ॥ २२ ॥ जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षसका है—राजाका नहीं, तब उन्होंने उस शापको केवल बारह वर्षके लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अञ्जलिमें जल लेकर गुरु वसिष्ठको शाप देनेके लिये उद्यत हुए ॥ २३ ॥ परंतु उनकी पत्नी मदयन्तीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। इसपर सौदासने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी—सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोड़ूँ ?’ अन्तमें उन्होंने उस जलको अपने पैरोंपर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ] ॥ २४ ॥ उस जलसे उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब वे राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपादने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पतिको सहवासके समय देख लिया ॥ २५ ॥ कल्माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नीकी कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा—‘राजन् ! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्तीके पति और इक्ष्वाकुवंशके वीर महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तानकी कामना है और इस ब्राह्मणकी भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ॥ २६-२७ ॥ राजन् ! यह मनुष्यशरीर जीवको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये वीर ! इस शरीरको नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थोंकी हत्या कही जाती है ॥ २८ ॥ फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणोंसे सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्मकी समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थोंमें विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणोंसे छिपे हुए हैं ॥ २९ ॥ राजन् ! आप शक्तिशाली हैं। आप धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिताके हाथों पुत्रकी मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षिके हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि पतिका वध किसी प्रकार उचित नहीं है ॥ ३० ॥ आपका साधु-समाजमें बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पतिका वध कैसे ठीक समझ रहे हैं। ये तो गौ के समान निरीह हैं ॥ ३१ ॥ फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पतिके बिना मैं मुर्देके समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी’ ॥ ३२ ॥ ब्राह्मणपत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणीमें इस प्रकार कहकर अनाथकी भाँति रोने लगी। परंतु सौदास ने शापसे मोहित होनेके कारण उसकी प्रार्थनापर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मणको वैसे ही खा गया, जैसे बाघ किसी पशुको खा जाय ॥ ३३ ॥ जब ब्राह्मणीने देखा कि राक्षसने मेरे गर्भाधानके लिये उद्यत पतिको खा लिया, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणी ने क्रोध करके राजाको शाप दे दिया ॥ ३४ ॥ ‘रे पापी ! मैं अभी कामसे पीडि़त हो रही थी। ऐसी अवस्थामें तूने मेरे पतिको खा डाला है। इसलिये मूर्ख ! जब तू स्त्रीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ’ ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मित्रसहको शाप देकर ब्राह्मणी अपने पतिकी अस्थियोंको धधकती हुई चितामें डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेवको मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पतिको छोडक़र और किसी लोकमें जाना भी तो नहीं चाहती थी ॥ ३६ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा—परीक्षित् ! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षसको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दिया। उसने राजाके इस कामको अन्याय समझा और उनसे भाईकी मृत्युका बदला लेनेके लिये वह रसोइयेका रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करनेके लिये गुरु वसिष्ठजी राजाके यहाँ आये, तब उसने मनुष्यका मांस राँधकर उन्हें परस दिया ॥ २०-२१ ॥ जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजीने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजाको शाप दिया कि ‘जा, इस कामसे तू राक्षस हो जायगा’ ॥ २२ ॥ जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षसका है—राजाका नहीं, तब उन्होंने उस शापको केवल बारह वर्षके लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अञ्जलिमें जल लेकर गुरु वसिष्ठको शाप देनेके लिये उद्यत हुए ॥ २३ ॥ परंतु उनकी पत्नी मदयन्तीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। इसपर सौदासने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी—सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोड़ूँ ?’ अन्तमें उन्होंने उस जलको अपने पैरोंपर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ] ॥ २४ ॥ उस जलसे उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब वे राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपादने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पतिको सहवासके समय देख लिया ॥ २५ ॥ कल्माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नीकी कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा—‘राजन् ! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्तीके पति और इक्ष्वाकुवंशके वीर महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तानकी कामना है और इस ब्राह्मणकी भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ॥ २६-२७ ॥ राजन् ! यह मनुष्यशरीर जीवको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष— चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये वीर ! इस शरीरको नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थोंकी हत्या कही जाती है ॥ २८ ॥ फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणोंसे सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्मकी समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थोंमें विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणोंसे छिपे हुए हैं ॥ २९ ॥ राजन् ! आप शक्तिशाली हैं। आप धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिताके हाथों पुत्रकी मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षिके हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि पतिका वध किसी प्रकार उचित नहीं है ॥ ३० ॥ आपका साधु-समाजमें बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पतिका वध कैसे ठीक समझ रहे हैं। ये तो गौ के समान निरीह हैं ॥ ३१ ॥ फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पतिके बिना मैं मुर्देके समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी’ ॥ ३२ ॥ ब्राह्मणपत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणीमें इस प्रकार कहकर अनाथकी भाँति रोने लगी। परंतु सौदास ने शापसे मोहित होनेके कारण उसकी प्रार्थनापर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मणको वैसे ही खा गया, जैसे बाघ किसी पशुको खा जाय ॥ ३३ ॥ जब ब्राह्मणीने देखा कि राक्षसने मेरे गर्भाधानके लिये उद्यत पतिको खा लिया, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणी ने क्रोध करके राजाको शाप दे दिया ॥ ३४ ॥ ‘रे पापी ! मैं अभी कामसे पीडि़त हो रही थी। ऐसी अवस्थामें तूने मेरे पतिको खा डाला है। इसलिये मूर्ख ! जब तू स्त्रीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ’ ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मित्रसहको शाप देकर ब्राह्मणी अपने पतिकी अस्थियोंको धधकती हुई चितामें डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेवको मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पतिको छोडक़र और किसी लोकमें जाना भी तो नहीं चाहती थी ॥ ३६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
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जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🏵️💐🌼जय श्री हरि: 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
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