॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सगर-चरित्र
सगरश्चक्रवर्त्यासीत् सागरो यत्सुतैः कृतः ।
यस्तालजंघान् यवनात् शकान् हैहयबर्बरान् ॥ ५ ॥
नावधीद् गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः ।
मुण्डान् श्मश्रुधरान् कांश्चित् मुक्तकेशार्धमुण्डितान् ॥
६ ॥
अनन्तर्वाससः कांश्चिद् अबहिर्वाससोऽपरान् ।
सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम् ॥ ७ ॥
और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम् ।
तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरन्दरः ॥ ८ ॥
सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः ।
हयं अन्वेषमाणास्ते समन्तात् न्यखनन् मन्महीम् ॥ ९ ॥
प्राग् उदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलान्तिके ।
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः ॥ १० ॥
हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः ।
उदायुधा अभिययुः उन्मिमेष तदा मुनिः ॥ ११ ॥
स्वशरीराग्निना तावन् महेन्द्रहृतचेतसः ।
महद्व्यतिक्रमहता भस्मसाद् अभवन् क्षणात् ॥ १२ ॥
न साधुवादो मुनिकोपभर्जिता
नृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि ।
कथं तमो रोषमयं विभाव्यते
जगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः ॥ १३ ॥
यस्येरिता सांख्यमयी दृढेह नौः
यया मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम् ।
भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः
परात्मभूतस्य कथं पृथङ्मतिः ॥ १४ ॥
सगर चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्हींके पुत्रोंने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगरने अपने गुरुदेव और्वकी आज्ञा मानकर तालजङ्घ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जातिके लोगोंका वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमेंसे कुछके सिर मुड़वा दिये, कुछके मूँछ-दाढ़ी रखवा दी, कुछ को खुले बालों वाला बना दिया तो कुछको आधा मुँड़वा दिया ॥ ५-६ ॥ कुछ लोगोंको सगर ने केवल वस्त्र ओढऩे की ही आज्ञा दी, पहनने की नहीं। और कुछको केवल लँगोटी पहनने को ही कहा, ओढऩे को नहीं। इसके बाद राजा सगर ने और्व ऋषिके उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान् भगवान् की आराधना की। उसके यज्ञमें जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्रने चुरा लिया ॥ ७-८ ॥ उस समय महारानी सुमति के गर्भसे उत्पन्न सगरके पुत्रोंने अपने पिताके आज्ञानुसार घोड़ेके लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमंडसे सब ओरसे पृथ्वीको खोद डाला ॥ ९ ॥ खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तर के कोने पर कपिल मुनिके पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़ेको देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि ‘यही हमारे घोड़ेको चुरानेवाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं ! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो !’ उसी समय कपिल मुनिने अपनी पलकें खोलीं ॥ १०-११ ॥ इन्द्रने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी, इसीसे उन्होंने कपिलमुनि-जैसे महापुरुष का तिरस्कार किया। इस तिरस्कार के फलस्वरूप उनके शरीरमें ही आग जल उठी, जिससे क्षणभरमें ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये ॥ १२ ॥ परीक्षित् ! सगरके लडक़े कपिलमुनिके क्रोधसे जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुणके परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत् को पवित्र करता रहता है। उनमें भला, क्रोधरूप तमोगुण की सम्भावना कैसे की जा सकती है । भला, कहीं पृथ्वी की धूलका भी आकाशसे सम्बन्ध होता है ? ॥ १३ ॥ यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परंतु कपिलमुनि ने इस जगत् में सांख्यशास्त्रकी एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्रके पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला यह शत्रु है और यह मित्र—इस प्रकारकी भेदबुद्धि कैसे हो सकती है ? ॥ १४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🍁🏵️🍁जय श्री हरि: 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय