॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान् श्रीराम की शेष लीलाओं का
वर्णन
मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता ।
ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह ॥ १५ ॥
तर् श्रुत्वा भगवान् रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः ।
स्मरंस्तस्या गुणान् तान् तान् नाशक्नोत् रोद्धुमीश्वरः ॥
१६ ॥
स्त्रीपुंप्रसङ्ग एतादृक् सर्वत्र त्रासमावहः ।
अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः ॥ १७ ॥
तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन् अजुहोत् प्रभुः ।
त्रयोदशाब्दसाहस्रं अग्निहोत्रं अखण्डितम् ॥ १८ ॥
स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः ।
स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः ॥ १९ ॥
नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयात्त ।
लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः ॥
रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्र पूगैः ।
किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः ॥ २० ॥
भगवान् श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीताजी ने अपने पुत्रों को
वाल्मीकि जी के हाथों में सौंप दिया और भगवान् श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती
हुई वे पृथ्वीदेवी के लोकमें चली गयीं ॥ १५ ॥ यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीरामने
अपने शोकावेश को बुद्धिके द्वारा रोकना चाहा, परंतु
परम समर्थ होनेपर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकी जी के पवित्र गुण
बार-बार स्मरण हो आया करते थे ॥ १६ ॥ परीक्षित् ! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध
सब कहीं इसी प्रकार दु:खका कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी
ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्धमें तो कहना
ही क्या है ॥ १७ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीरामने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक
अखण्डरूपसे अग्निहोत्र किया ॥ १८ ॥ तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंके हृदयमें
अपने उन चरणकमलोंको स्थापित करके, जो दण्डकवनके काँटोंसे बिंध
गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाम में चले गये ॥
१९ ॥
परीक्षित् ! भगवान् के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढक़र तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थितिमें रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामके लिये यह कोई बड़े गौरवकी बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र- शस्त्रोंसे राक्षसोंको मार डाला या समुद्रपर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओंको मारनेके लिये बंदरोंकी सहायताकी भी आवश्यकता थी क्या ? यह सब उनकी लीला ही है ॥ २० ॥
परीक्षित् ! भगवान् के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढक़र तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थितिमें रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामके लिये यह कोई बड़े गौरवकी बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र- शस्त्रोंसे राक्षसोंको मार डाला या समुद्रपर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओंको मारनेके लिये बंदरोंकी सहायताकी भी आवश्यकता थी क्या ? यह सब उनकी लीला ही है ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Kriishna
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंJaishreeKrishna
जवाब देंहटाएं🏵️🍂🌹जय श्री हरि: 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंजय रघुनंदन जय सिया राम
हे दुःख भंजन तुम्हें प्रणाम
जय जय सियाराम