॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
परशुरामजी
के द्वारा क्षत्रियसंहार
और विश्वामित्र जी के वंश की कथा
गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नविहतश्रियम् ।
तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे महागिरिम् ॥ १७ ॥
तद् रक्तेन नदीं घोरां अब्रह्मण्यभयावहाम् ।
हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्रेऽमंगलकारिणि ॥ १८ ॥
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः ।
समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान् ह्रदान् नृप ॥ १९ ॥
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्हिषि ।
सर्वदेवमयं देवं आत्मानं अयजन्मखैः ॥ २० ॥
ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे उत्तरां दिशम् ॥ २१ ॥
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च मध्यतः ।
आर्यावर्तं उपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम् ॥ २२ ॥
ततश्चावभृथस्नान विधूताशेषकिल्बिषः ।
सरस्वत्यां महानद्यां रेजे व्यभ्र इवांशुमान् ॥ २३ ॥
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम् ।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत् सप्तमो रामपूजितः ॥ २४ ॥
जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः ।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै बृहत् ॥ २५ ॥
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः ।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥ २६ ॥
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः ।
अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो नृपान् ॥ २७ ॥
परीक्षित् ! परशुरामजीने माहिष्मती नगरीमें जाकर सहस्रबाहु
अर्जुनके पुत्रोंके सिरोंसे नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस
नगरकी शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी ॥ १७ ॥
उनके रक्तसे एक बड़ी भयङ्कर नदी बह निकली, जिसे देखकर
ब्राह्मणद्रोहियोंका हृदय भयसे काँप उठता था। भगवान्ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय
अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन् ! उन्होंने अपने पिताके वधको निमित्त बनाकर
इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपञ्चकमें ऐसे-ऐसे
पाँच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ॥ १८-१९ ॥
परशुरामजीने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़से जोड़ दिया और यज्ञोंद्वारा
सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान्का यजन किया ॥ २० ॥ यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा
होताको, दक्षिण दिशा ब्रह्माको, पश्चिम
दिशा अध्वर्युको और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्गाताको दे दी ॥ २१ ॥ इसी प्रकार
अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजोंको दीं, कश्यपजीको मध्यभूमि
दी, उपद्रष्टाको आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्योंको
अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं ॥ २२ ॥ इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त
पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वतीके तटपर मेघरहित सूर्यके समान शोभायमान
हुए ॥ २३ ॥ महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीरकी प्राप्ति हो गयी।
परशुरामजीसे सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये ॥ २४ ॥
परीक्षित् ! कमललोचन जमदग्नि-नन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तरमें
सप्तर्षियोंके मण्डलमें रहकर वेदोंका विस्तार करेंगे ॥ २५ ॥ वे आज भी किसीको किसी
प्रकारका दण्ड न देते हुए शान्त चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं। वहाँ
सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर स्वरसे गान करते
रहते हैं ॥ २६ ॥ सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार
भृगुवंशियोंमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके भारभूत राजाओंका बहुत बार वध किया ॥ २७
॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jayshree Krishna
जवाब देंहटाएंJai shree Krishna
जवाब देंहटाएंसिया वर रामचंद्र भगवान की जय
जवाब देंहटाएं🌺☘️🌺जय श्री हरि: 🙏🙏🌿
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण