बुधवार, 1 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः स्वपितुर्वधम् ।

रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित् ॥ ९ ॥

एकदाश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते ।

वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन् ॥ १० ॥

दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनं आवेशितधियं मुनिम् ।

भगवति उत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः ॥ ११ ॥

याच्यमानाः कृपणया राममात्रातिदारुणाः ।

प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्रबन्धवः ॥ १२ ॥

रेणुका दुःखशोकार्ता निघ्नन्त्यात्मानमात्मना ।

राम रामेति तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती ॥ १३ ॥

तदुपश्रुत्य दूरस्था हा रामेत्यार्तवत्स्वनम् ।

त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशुः पितरं हतम् ॥ १४ ॥

ते दुःखरोषामर्षार्ति शोकवेगविमोहिताः ।

हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान् ॥ १५ ॥

विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम् ।

प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे ॥ १६ ॥


परीक्षित्‌ ! सहस्रबाहु अर्जुनके जो लडक़े परशुरामजीसे हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिताके वधकी याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था ॥ ९ ॥ एक दिनकी बात है, परशुरामजी अपने भाइयोंके साथ आश्रमसे बाहर वनकी ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साधनेके लिये सहस्रबाहुके लडक़े वहाँ आ पहुँचे ॥ १० ॥ उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशाला में बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्‌ के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहरकी कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषिको मार डाला। उन्होंने पहलेसे ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था ॥ ११ ॥ परशुरामकी माता रेणुका बड़ी दीनतासे उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परंतु उन सबोंने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्रिका सिर काटकर ले गये। परीक्षित्‌ ! वास्तवमें वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे ॥ १२ ॥ सती रेणुका दु:ख और शोकसे आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोरसे रोने लगीं— ‘परशुराम ! बेटा परशुराम ! शीघ्र आओ ॥ १३ ॥ परशुरामजीने बहुत दूरसे माताका हा राम !यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय परशुरामजीको बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये। हाय पिताजी ! आप तो बड़े महात्मा थे। पिताजी ! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगोंको छोडक़र स्वर्ग चले गये॥ १५ ॥ इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयोंको सौंप दिया और स्वयं हाथमें फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया ॥ १६ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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