॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
परशुरामजी
के द्वारा क्षत्रियसंहार
और विश्वामित्र जी के वंश की कथा
श्रीशुक उवाच ।
पित्रोपशिक्षितो रामः तथेति कुरुनन्दन ।
संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत् ॥ १ ॥
कदाचित् रेणुका याता गंगायां पद्ममालिनम् ।
गन्धर्वराजं क्रीडन्तं अप्सरोभिरपश्यत ॥ २ ॥
विलोकयन्ती क्रीडन्तं उदकार्थं नदीं गता ।
होमवेलां न सस्मार किञ्चित् चित्ररथस्पृहा ॥ ३ ॥
कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशंकिता ।
आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताञ्जलिः ॥ ४ ॥
व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत् ।
घ्नतैनां पुत्रकाः पापां इत्युक्तास्ते न चक्रिरे ॥ ५ ॥
रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन् मात्रा सहावधीत् ।
प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक् समाधेस्तपसश्च सः ॥ ६ ॥
वरेण च्छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः ।
वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे ॥ ७ ॥
उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाञ्जसा ।
पितुर्विद्वान् तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम् ॥ ८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! अपने पिता की यह शिक्षा भगवान् परशुराम ने ‘जो आज्ञा’ कहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये ॥१॥ एक दिनकी बात है परशुरामजी की माता रेणुका गङ्गातट पर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है ॥ २ ॥ वे जल लानेके लिये नदीतट पर गयी थीं, परंतु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया है—इस बातको भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था ॥ ३ ॥ हवन का समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँसे आश्रमपर चली आयीं। वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं ॥ ४ ॥ जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा—‘मेरे पुत्रो ! इस पापिनीको मार डालो।’ परंतु उनके किसी भी पुत्रने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की ॥ ५ ॥ इसके बाद पिताकी आज्ञासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइयोंको भी मार डाला। इसका कारण था—वे अपने पिताजीके योग और तपस्याका प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ ६ ॥ परशुरामजीके इस कामसे सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा—‘बेटा ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’ परशुरामजीने कहा—‘पिताजी ! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बातकी याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’ ॥ ७ ॥ परशुरामजी के इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। परशुरामजी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदोंका वध किया था ॥ ८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंJai shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌸❄️🌷 जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय