॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का
विवाह
और
कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों हत्या
सूत
उवाच ।
एवं
निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं ।
वैयासकिः
स भगवान् अथ विष्णुरातम् ।
प्रत्यर्च्य
कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं ।
व्याहर्तुमारभत
भागवतप्रधानः ॥ १४ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
सम्यग्व्यवसिता
बुद्धिः तव राजर्षिसत्तम ।
वासुदेवकथायां
ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः ॥ १५ ॥
वासुदेवकथाप्रश्नः
पुरुषान् त्रीन् पुनाति हि ।
वक्तारं
पृच्छकं श्रोतॄन् तत्पादसलिलं यथा ॥ १६ ॥
भूमिः
दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः ।
आक्रान्ता
भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥ १७ ॥
गौर्भूत्वा
अश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः ।
उपस्थितान्तिके
तस्मै व्यसनं स्वं अवोचत ॥ १८ ॥
ब्रह्मा
तद् उपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।
जगाम
स-त्रिनयनः तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ १९ ॥
तत्र
गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम् ।
पुरुषं
पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः ॥ २० ॥
गिरं
समाधौ गगने समीरितां
निशम्य
वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां
पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुनः
विधीयतां
आशु तथैव मा चिरम् ॥ २१ ॥
पुरैव
पुंसा अवधृतो धराज्वरो
भवद्भिः
अंशैः यदुषूपजन्यताम् ।
स
यावद् उर्व्या भरं इश्वरेश्वरः
स्वकालशक्त्या
क्षपयन् चरेद् भुवि ॥ २२ ॥
वसुदेवगृहे
साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
जनिष्यते
तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥ २३ ॥
वासुदेवकलानन्तः
सहस्रवदनः स्वराट् ।
अग्रतो
भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया ॥ २४ ॥
विष्णोर्माया
भगवती यया सम्मोहितं जगत् ।
आदिष्टा
प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति ॥ २५ ॥
सूतजी
कहते हैं—शौनकजी ! भगवान् के प्रेमियों में अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी
महाराज ने परीक्षित् का ऐसा समीचीन प्रश्र सुनकर (जो संतोंकी सभा में भगवान् की
लीलाके वर्णनका हेतु हुआ करता है) उनका अभिनन्दन किया और भगवान् श्रीकृष्णकी उन
लीलाओंका वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त कलिमलोंको सदाके
लिये धो डालती हैं ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—भगवान्के लीला-रसके रसिक राजर्षे ! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके
हृदयाराध्य श्रीकृष्णकी लीला-कथा श्रवण करनेमें तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति
प्राप्त हो गयी है ॥ १५ ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी कथाके सम्बन्धमें प्रश्र करनेसे ही
वक्ता, प्रश्रकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं—जैसे गङ्गाजीका जल या भगवान् शालग्रामका चरणामृत सभीको पवित्र कर देता है
॥ १६ ॥
परीक्षित्
! उस समय लाखों दैत्योंके दलने घमंडी राजाओंका रूप धारण कर अपने भारी भारसे
पृथ्वीको आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पानेके लिये वह ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ॥
१७ ॥ पृथ्वीने उस समय गौका रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रोंसे आँसू बह-बहकर
मुँहपर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश
हो गया था। वह बड़े करुण स्वरसे रँभा रही थी। ब्रह्माजी के पास जाकर उसने उन्हें
अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी
दु:ख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान् शङ्कर, स्वर्ग के
अन्यान्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूपमें आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर
क्षीरसागरके तटपर गये ॥ १९ ॥ भगवान् देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने
भक्तोंकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते और उनके समस्त क्लेशोंको नष्ट कर देते हैं।
वे ही जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। क्षीरसागरके तटपर पहुँचकर ब्रह्मा आदि देवताओंने
‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा उन्हीं परम
पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभुकी स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधिस्थ हो
गये ॥ २० ॥ उन्होंने समाधि अवस्थामें आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत्के निर्माणकर्ता
ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा—‘देवताओ ! मैंने भगवान्की वाणी
सुनी है। तुमलोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालनमें
विलम्ब नहीं होना चाहिये ॥ २१ ॥ भगवान् को पृथ्वीके कष्टका पहलेसे ही पता है। वे
ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। अत: अपनी कालशक्तिके द्वारा पृथ्वीका भार हरण करते हुए वे
जबतक पृथ्वीपर लीला करें, तबतक तुम लोग भी अपने-अपने अंशोंके
साथ यदुकुलमें जन्म लेकर उनकी लीलामें सहयोग दो ॥ २२ ॥ वसुदेवजीके घर स्वयं
पुरुषोत्तम भगवान् प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवाके लिये
देवाङ्गनाएँ जन्म ग्रहण करें ॥ २३ ॥ स्वयंप्रकाश भगवान् शेष भी, जो भगवान्की कला होनेके कारण अनन्त हैं (अनन्तका अंश भी अनन्त ही होता
है) और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान्के प्रिय कार्य करनेके
लिये उनसे पहले ही उनके बड़े भाईके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे ॥ २४ ॥ भगवान्की वह
ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत्को मोहित कर रखा
है, उनकी आज्ञासे उनकी लीलाके कार्य सम्पन्न करनेके लिये
अंशरूपसे अवतार ग्रहण करेगी’ ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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