गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



पूरु के वंश,राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन


श्रीशकुन्तलोवाच ।

विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।

वेदैतद् भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते ॥ १३ ॥

आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतां अर्हणं च नः ।

भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥ १४ ॥



दुष्यन्त उवाच ।

उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये ।

स्वयं हि वृणुते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम् ॥ १५ ॥

ओमित्युक्ते यथाधर्मं उपयेमे शकुन्तलाम् ।

गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित् ॥ १६ ॥

अमोघवीर्यो राजर्षिः महिष्यां वीर्यमादधे ।

श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ॥ १७ ॥

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः ।

बद्ध्वा मृगेन्द्रान् तरसा क्रीडति स्म स बालकः ॥ १८ ॥

तं दुरत्ययविक्रान्तं आदाय प्रमदोत्तमा ।

हरेः अंशांशसंभूतं भर्तुरन्तिकमागमत् ॥ १९ ॥

यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ ।

श्रृण्वतां सर्वभूतानां खे वाग् आह अशरीरिणी ॥ २० ॥

माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।

भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥ २१ ॥

रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।

त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥ २२ ॥


शकुन्तला ने कहा—‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्रजी की पुत्री हूँ। मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करनेवाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ १३ ॥ कमलनयन ! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रममें कुछ नीवार (तिन्नीका भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये॥ १४ ॥
दुष्यन्तने कहा—‘सुन्दरी ! तुम कुशिकवंशमें उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकारका आतिथ्य- सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पतिको वरण कर लिया करती हैं॥ १५ ॥ शकुन्तलाकी स्वीकृति मिल जानेपर देश, काल और शास्त्रकी आज्ञाको जाननेवाले राजा दुष्यन्तने गान्धर्वविधिसे धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया ॥ १६ ॥ राजर्षि दुष्यन्तका वीर्य अमोघ था। रात्रिमें वहाँ रहकर दुष्यन्तने शकुन्तलाका सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानीमें चले गये। समय आनेपर शकुन्तलाको एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १७ ॥ महर्षि कण्वने वनमें ही राजकुमारके जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपनमें ही इतना बलवान् था कि बड़े-बड़े सिंहोंको बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता ॥ १८ ॥
वह बालक भगवान्‌का अंशांशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पतिके पास गयी ॥ १९ ॥ जब राजा दुष्यन्तने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्रको स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगोंने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई ॥ २० ॥ पुत्र उत्पन्न करनेमें माता तो केवल धौंकनीके समान है। वास्तवमें पुत्र पिताका ही है। क्योंकि पिता ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त ! तुम शकुन्तलाका तिरस्कार न करो, अपने पुत्रका भरण-पोषण करो ॥ २१ ॥ राजन् ! वंशकी वृद्धि करनेवाला पुत्र अपने पिताको नरकसे उबार लेता है। शकुन्तलाका कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भको धारण करानेवाले तुम्हीं हो॥ २२ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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