गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



पूरु के वंश,राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन


श्रीशुक उवाच ।

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ।

यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥ १ ॥

जनमेजयो ह्यभूत् पूरोः प्रचिन्वांस्तत् सुतस्ततः ।

प्रवीरोऽथ मनुस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत् ॥ २ ॥

तस्य सुद्युरभूत् पुत्रः तस्माद् बहुगवस्ततः ।

संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥ ३ ॥

ऋतेयुस्तस्य कक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः ।

जलेयुः सन्नतेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः ॥ ४ ॥

दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।

घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः ॥ ५ ॥

ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत् त्रयस्तस्यात्मजा नृप ।

सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः ॥ ६ ॥

तस्य मेधातिथिः तस्मात् प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः ।

पुत्रोऽभूत् सुमते रेभ्यो दुष्यन्तः तत्सुतो मतः ॥ ७ ॥

दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।

तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥ ८ ॥

विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम् ।

बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः ॥ ९ ॥

तद्दर्शनप्रमुदितः संनिवृत्तपरिश्रमः ।

पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसन् श्लक्ष्णया गिरा ॥ १० ॥

का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयंगमे ।

किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने ॥ ११ ॥

व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्‌म्यहं त्वां सुमध्यमे ।

न हि चेतः पौरवाणां अधर्मे रमते क्वचित् ॥ १२ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब मैं राजा पूरुके वंशका वर्णन करूँगा। इसी वंशमें तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंशके वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रहमर्षि भी हुए हैं ॥ १ ॥ पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान्, प्रचिन्वान् का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद ॥ २ ॥ चारुपद से  सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ ॥ ३ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भसे रौद्राश्व के दस पुत्र हुएऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु ॥ ४-५ ॥ परीक्षित्‌ ! उनमेंसे ऋतेयुका पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभारके तीन पुत्र हुएसुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथके पुत्रका नाम था कण्व ॥ ६ ॥ कण्वका पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथिसे प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमतिका पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था ॥ ७ ॥
एक बार दुष्यन्त वनमें अपने कुछ सैनिकोंके साथ शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनिके आश्रमपर जा पहुँचे। उस आश्रमपर देवमायाके समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मीके समान अङ्गकान्तिसे वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरीको देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे ॥ ८-९ ॥ उसको देखनेसे उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मनमें कामवासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करनेके बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणीसे मुसकराते हुए उससे पूछा॥ १० ॥ कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाली देवि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने वाली सुन्दरी ! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो ? ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता॥ १२॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


2 टिप्‍पणियां:

  1. 🌺💐🌾जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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