शुक्रवार, 1 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

ब्रह्मा भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः
देवैः सानुचरैः साकं गीर्भिर्वृषणमैडयन् ॥ २५ ॥
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं
सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥ २६ ॥
एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूल-
श्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा
सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो
दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ॥ २७ ॥
त्वमेक एवास्य सतः प्रसूति-
स्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च
त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां
पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ॥ २८ ॥
बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्मा
क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य
सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि
सतामभद्रा णि मुहुः खलानाम् ॥ २९ ॥

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ शङ्कर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आये । उनके साथ अपने अनुचरोंके सहित समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी थे । वे लोग सुमधुर वचनोंसे सबकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥ प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं । सत्य ही आपकी प्राप्तिका श्रेष्ठ साधन है । सृष्टिके पूर्व, प्रलयके पश्चात् और संसारकी स्थितिके समयइन असत्य अवस्थाओंमें भी आप सत्य हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्योंके आप ही कारण हैं । और उनमें अन्तर्यामीरूपसे विराज- मान भी हैं । आप इस दृश्यमान जगत्के परमार्थस्वरूप हैं । आप ही मधुर वाणी और समदर्शनके प्रवर्तक हैं । भगवन् ! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं । हम सब आपकी शरणमें आये हैं ॥ २६ ॥ यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष । इस वृक्षका आश्रय हैएक प्रकृति । इसके दो फल हैंसुख और दु:ख; तीन जड़ें हैंसत्त्व, रज और तम; चार रस हैंधर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इसके जाननेके पाँच प्रकार हैंश्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका । इसके छ: स्वभाव हैंपैदा होना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना । इस वृक्षकी छाल हैं सात धातुएँरस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । आठ शाखाएँ हैंपाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार । इसमें मुख आदि नवों द्वार खोडऱ हैं । प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जयये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं । इस संसाररूप वृक्षपर दो पक्षी हैंजीव और ईश्वर ॥ २७ ॥ इस संसाररूप वृक्षकी उत्पत्तिके आधार एकमात्र आप ही हैं । आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रहसे इसकी रक्षा भी होती है । जिनका चित्त आपकी मायासे आवृत हो रहा है, इस सत्यको समझनेकी शक्ति खो बैठा हैवे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको अनेक देखते हैं । तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूपमें केवल आपका ही दर्शन करते हैं ॥ २८ ॥ आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं । चराचर जगत्के कल्याणके लिये ही अनेकों रूप धारण करते हैं । आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषोंको बहुत सुख देते हैं । साथ ही दुष्टोंको उनकी दुष्टताका दण्ड भी देते हैं । उनके लिये अमङ्गलमय भी होते हैं ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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