मंगलवार, 19 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

एकदार्भकमादाय स्वाङ्कमारोप्य भामिनी
प्रस्नुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता ॥ ३४ ॥
पीतप्रायस्य जननी सुतस्य रुचिरस्मितम्
मुखं लालयती राजञ्जृम्भतो ददृशे इदम् ॥ ३५ ॥
खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः
सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च
द्वीपान्नगांस्तद्दुहितॄर्वनानि
भूतानि यानि स्थिरजङ्गमानि ॥ ३६ ॥
सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन्सञ्जातवेपथुः
सम्मील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥ ३७ ॥

एक दिनकी बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशुको अपनी गोदमें लेकर बड़े प्रेमसे स्तन-पान करा रही थीं । वे वात्सल्य-स्नेहसे इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनोंसे अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था ॥ ३४ ॥ जब वे प्राय: दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुसकानसे युक्त मुखको चूम रही थीं उसी समय श्रीकृष्णको जँभाई आ गयी और माताने उनके मुखमें यह देखा [*] ॥ ३५ ॥ उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं ॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! अपने पुत्रके मुँहमें इस प्रकार सहसा सारा जगत् देखकर मृगशावकनयनी यशोदाजीका शरीर काँप उठा । उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं[$] । वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३७ ॥
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[*] स्नेहमयी जननी और स्नेहके सदा भूखे भगवान्‌ ! उन्हें दूध पीनेसे तृप्ति ही नहीं होती थी । माँ के मनमें शङ्का हुईकहीं अधिक पीनेसे अपच न हो जाय । प्रेम सर्वदा अनिष्टकी आशङ्का उत्पन्न करता है । श्रीकृष्णने अपने मुखमें विश्वरूप दिखाकर कहा—‘अरी मैया ! तेरा दूध मैं अकेले ही नहीं पीता हूँ । मेरे मुखमें बैठकर सम्पूर्ण विश्व ही इसका पान कर रहा है । तू घबरावे मत’—

“स्तन्यं कियत् पिबसि भूर्यलमर्भकेति वॢतष्यमाणवचनां जननीं विभाव्य ।।
विश्वं विभागि पयसोऽस्य न केवलोऽहमस्माददॢश हरिणा किमु विश्वमास्ये ।।“

[$] वात्सल्यमयी यशोदा माता अपने लाला के मुखमें विश्व देखकर डर गयीं, परंतु वात्सल्य-प्रेमरस-भावित हृदय होनेसे उन्हें विश्वास नहीं हुआ । उन्होंनेयहविचार किया कि यह विश्वका बखेड़ा लालाके मुँहमें कहाँसे आया ? हो-न-हो यह मेरी इन निगोड़ी आँखोंकी ही गड़बड़ी है । मानो इसीसे उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिये ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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