॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
शकट-भञ्जन
और तृणावर्त-उद्धार
एकदार्भकमादाय
स्वाङ्कमारोप्य भामिनी
प्रस्नुतं
पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता ॥ ३४ ॥
पीतप्रायस्य
जननी सुतस्य रुचिरस्मितम्
मुखं
लालयती राजञ्जृम्भतो ददृशे इदम् ॥ ३५ ॥
खं
रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः
सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च
द्वीपान्नगांस्तद्दुहितॄर्वनानि
भूतानि
यानि स्थिरजङ्गमानि ॥ ३६ ॥
सा
वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन्सञ्जातवेपथुः
सम्मील्य
मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥ ३७ ॥
एक
दिनकी बात है,
यशोदाजी अपने प्यारे शिशुको अपनी गोदमें लेकर बड़े प्रेमसे स्तन-पान
करा रही थीं । वे वात्सल्य-स्नेहसे इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनोंसे
अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था ॥ ३४ ॥ जब वे प्राय: दूध पी चुके और माता यशोदा
उनके रुचिर मुसकानसे युक्त मुखको चूम रही थीं उसी समय श्रीकृष्णको जँभाई आ गयी और
माताने उनके मुखमें यह देखा [*] ॥ ३५ ॥ उसमें आकाश, अन्तरिक्ष,
ज्योतिर्मण्डल, दिशाएँ, सूर्य,
चन्द्रमा, अग्नि, वायु,
समुद्र, द्वीप, पर्वत,
नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं ॥
३६ ॥ परीक्षित् ! अपने पुत्रके मुँहमें इस प्रकार सहसा सारा जगत् देखकर
मृगशावकनयनी यशोदाजीका शरीर काँप उठा । उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर
लीं[$] । वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३७ ॥
........................................................
[*]
स्नेहमयी जननी और स्नेहके सदा भूखे भगवान् ! उन्हें दूध पीनेसे तृप्ति ही नहीं
होती थी । माँ के मनमें शङ्का हुई—कहीं अधिक पीनेसे
अपच न हो जाय । प्रेम सर्वदा अनिष्टकी आशङ्का उत्पन्न करता है । श्रीकृष्णने अपने
मुखमें विश्वरूप दिखाकर कहा—‘अरी मैया ! तेरा दूध मैं अकेले
ही नहीं पीता हूँ । मेरे मुखमें बैठकर सम्पूर्ण विश्व ही इसका पान कर रहा है । तू
घबरावे मत’—
“स्तन्यं
कियत् पिबसि भूर्यलमर्भकेति वॢतष्यमाणवचनां जननीं विभाव्य ।।
विश्वं
विभागि पयसोऽस्य न केवलोऽहमस्माददॢश हरिणा किमु विश्वमास्ये ।।“
[$]
वात्सल्यमयी यशोदा माता अपने लाला के मुखमें विश्व देखकर डर गयीं,
परंतु वात्सल्य-प्रेमरस-भावित हृदय होनेसे उन्हें विश्वास नहीं हुआ
। उन्होंने—यहविचार किया कि यह विश्वका बखेड़ा लालाके
मुँहमें कहाँसे आया ? हो-न-हो यह मेरी इन निगोड़ी आँखोंकी ही
गड़बड़ी है । मानो इसीसे उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिये ।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें