॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
नामकरण-संस्कार
और बाललीला
श्रीशुक
उवाच ।
गर्गः
पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः ।
व्रजं
जगाम नन्दस्य वसुदेव प्रचोदितः ॥ १ ॥
तं
दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः ।
आनर्चाधोक्षजधिया
प्रणिपातपुरःसरम् ॥ २ ॥
सूपविष्टं
कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम् ।
नन्दयित्वाब्रवीद्
ब्रह्मन् पूर्णस्य करवाम किम् ॥ ३ ॥
महद्विचलनं
नॄणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।
निःश्रेयसाय
भगवन् कल्पते नान्यथा क्वचित् ॥ ४ ॥
ज्योतिषामयनं
साक्षाद् यत्तज्ज्ञानं अतीन्द्रियम् ।
प्रणीतं
भवता येन पुमान्वेद परावरम् ॥ ५ ॥
त्वं
हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान् कर्तुमर्हसि ।
बालयोरनयोर्नॄणां
जन्मना ब्राह्मणो गुरुः ॥ ६ ॥
श्रीगर्ग
उवाच ।
यदूनां
अहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वतः ।
सुतं
मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥ ७ ॥
कंसः
पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः ।
देवक्या
अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति ॥ ८ ॥
इति
सञ्चिन्तयन् श्रुत्वा देवक्या दारिकावचः ।
अपि
हन्ता आगताशङ्कः तर्हि तन्नोऽनयो भवेत् ॥ ९ ॥
श्रीनन्द
उवाच ।
अलक्षितोऽस्मिन्
रहसि मामकैरपि गोव्रजे ।
कुरु
द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! यदुवंशियों के कुल-पुरोहित थे श्रीगर्गाचार्य जी । वे बड़े
तपस्वी थे । वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये ॥ १ ॥
उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे हाथ जोडक़र उठ खड़े हुए । उनके
चरणोंमें प्रणाम किया । इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान् ही हैं’—इस भाव से उनकी पूजा की ॥ २ ॥ जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गये और
विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी
ही मधुर वाणीसे उनका अभिनन्दन किया और कहा—‘भगवन् ! आप तो
स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ ३ ॥ आप-जैसे महात्माओंका हमारे-जैसे गृहस्थोंके घर आ जाना ही हमारे परम
कल्याणका कारण है । हम तो घरोंमें इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपञ्चोंमें हमारा
चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रमतक जा भी नहीं सकते । हमारे कल्याणके
सिवा आपके आगमनका और कोई हेतु नहीं है ॥ ४ ॥ प्रभो ! जो बात साधारणत: इन्द्रियोंकी
पहुँचके बाहर है अथवा भूत और भविष्यके गर्भमें निहित है, वह
भी ज्यौतिष-शास्त्रके द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है । आपने उसी
ज्यौतिष-शास्त्रकी रचना की है ॥ ५ ॥ आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं । इसलिये
मेरे इन दोनों बालकों के नामकरणादि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्यमात्रका गुरु है’ ॥ ६ ॥
गर्गाचार्यजीने
कहा—नन्दजी ! मैं सब जगह यदुवंशियोंके आचार्यके रूपमें प्रसिद्ध हूँ । यदि मैं
तुम्हारे पुत्रके संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो
देवकीका पुत्र है ॥ ७ ॥ कंसकी बुद्धि बुरी है, वह पाप ही
सोचा करती है । वसुदेवजीके साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है । जबसे देवकीकी
कन्यासे उसने यह बात सुनी है कि उसको मारनेवाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकीके आठवें गर्भसे कन्याका जन्म नहीं होना
चाहिये । यदि मैं तुम्हारे पुत्रका संस्कार कर दूँ और वह इस बालकको वसुदेवजीका
लडक़ा समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायगा ॥ ८-९ ॥
नन्दबाबाने
कहा—आचार्यजी ! आप चुपचाप इस एकान्त गोशालामें केवल स्वस्तिवाचन करके इस
बालकका द्विजातिसमुचित नामकरण-संस्कारमात्र कर दीजिये । औरोंकी कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बातको न जानने पावें ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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