॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)
पूतना-उद्धार
श्रीशुक
उवाच ।
नन्दः
पथि वचः शौरेः न मृषेति विचिन्तयन् ।
हरिं
जगाम शरणं उत्पातागमशङ्कितः ॥ १ ॥
कंसेन
प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी ।
शिशूंश्चचार
निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु ॥ २ ॥
न
यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति
सात्वतां भर्तुः यातुधान्यश्च तत्र हि ॥ ३ ॥
सा
खेचर्येकदोत्पत्य पूतना नन्दगोकुलम् ।
योषित्वा
माययाऽऽत्मानं प्राविशत् कामचारिणी ॥ ४ ॥
तां
केशबन्ध व्यतिषक्तमल्लिकां
बृहन्नितंब
स्तनकृच्छ्रमध्यमाम् ।
सुवाससं
कल्पितकर्णभूषण
त्विषोल्लसत्
कुन्तलमण्डिताननाम् ॥ ५ ॥
वल्गुस्मितापाङ्ग
विसर्गवीक्षितैः
मनो
हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम् ।
अमंसताम्भोजकरेण
रूपिणीं
गोप्यः
श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम् ॥ ६ ॥
बालग्रहस्तत्र
विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया
नन्दगृहेऽसदन्तकम् ।
बालं
प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श
तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में
विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता । इससे उनके मनमें उत्पात
होनेकी आशङ्का हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान् ही शरण
हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय
किया ॥ १ ॥ पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी । उसका एक ही काम था—बच्चों को मारना । कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और
अहीरों की बस्तियों में बच्चोंको मारने के लिये घूमा करती थी ॥ २ ॥ जहाँ के लोग
अपने प्रतिदिनके कामों में राक्षसोंके भयको दूर भगानेवाले भक्तवत्सल भगवान्के नाम,
गुण और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं
करते—वहीं ऐसी राक्षसियोंका बल चलता है ॥ ३ ॥ वह पूतना
आकाशमार्गसे चल सकती थी और अपनी इच्छाके अनुसार रूप भी बना लेती थी । एक दिन
नन्दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको एक सुन्दरी युवती बना लिया और
गोकुलके भीतर घुस गयी ॥ ४ ॥ उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था । उसकी चोटियोंमें
बेलेके फूल गुँथे हुए थे । सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी । जब उसके कर्णफूल हिलते थे,
तब उनकी चमकसे मुखकी ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं
। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी ॥ ५ ॥ वह अपनी मधुर मुसकान
और कटाक्षपूर्ण चितवनसे व्रजवासियोंका चित्त चुरा रही थी । उस रूपवती रमणीको
हाथमें कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पतिका दर्शन करनेके लिये आ रही हैं ॥ ६ ॥
पूतना
बालकों के लिये ग्रह के समान थी । वह इधर-उधर बालकों को ढूँढ़ती हुई अनायास ही
नन्दबाबा के घर में घुस गयी । वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए
हैं । परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं । परंतु जैसे आग राख की
ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने
प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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