बुधवार, 13 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

पूतना-उद्धार

श्रीशुक उवाच ।

नन्दः पथि वचः शौरेः न मृषेति विचिन्तयन् ।
हरिं जगाम शरणं उत्पातागमशङ्‌‍कितः ॥ १ ॥
कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी ।
शिशूंश्चचार निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु ॥ २ ॥
न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुः यातुधान्यश्च तत्र हि ॥ ३ ॥
सा खेचर्येकदोत्पत्य पूतना नन्दगोकुलम् ।
योषित्वा माययाऽऽत्मानं प्राविशत् कामचारिणी ॥ ४ ॥
तां केशबन्ध व्यतिषक्तमल्लिकां
बृहन्नितंब स्तनकृच्छ्रमध्यमाम् ।
सुवाससं कल्पितकर्णभूषण
त्विषोल्लसत् कुन्तलमण्डिताननाम् ॥ ५ ॥
वल्गुस्मितापाङ्‌‍ग विसर्गवीक्षितैः
मनो हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम् ।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणीं
गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम् ॥ ६ ॥
बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया नन्दगृहेऽसदन्तकम् ।
बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता । इससे उनके मनमें उत्पात होनेकी आशङ्का हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन भगवान्‌ ही शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगेऐसा निश्चय किया ॥ १ ॥ पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी । उसका एक ही काम थाबच्चों को मारना । कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चोंको मारने के लिये घूमा करती थी ॥ २ ॥ जहाँ के लोग अपने प्रतिदिनके कामों में राक्षसोंके भयको दूर भगानेवाले भक्तवत्सल भगवान्‌के नाम, गुण और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करतेवहीं ऐसी राक्षसियोंका बल चलता है ॥ ३ ॥ वह पूतना आकाशमार्गसे चल सकती थी और अपनी इच्छाके अनुसार रूप भी बना लेती थी । एक दिन नन्दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको एक सुन्दरी युवती बना लिया और गोकुलके भीतर घुस गयी ॥ ४ ॥ उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था । उसकी चोटियोंमें बेलेके फूल गुँथे हुए थे । सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी । जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमकसे मुखकी ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं । उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी ॥ ५ ॥ वह अपनी मधुर मुसकान और कटाक्षपूर्ण चितवनसे व्रजवासियोंका चित्त चुरा रही थी । उस रूपवती रमणीको हाथमें कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पतिका दर्शन करनेके लिये आ रही हैं ॥ ६ ॥
पूतना बालकों के लिये ग्रह के समान थी । वह इधर-उधर बालकों को ढूँढ़ती हुई अनायास ही नन्दबाबा के घर में घुस गयी । वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए हैं । परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं । परंतु जैसे आग राख की ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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