॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)
पूतना-उद्धार
तां
तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां
वीक्ष्यान्तरा
कोषपरिच्छदासिवत् ।
वरस्त्रियं
तत्प्रभया च धर्षिते
निरीक्ष्यमाणे
जननी ह्यतिष्ठताम् ॥ ९ ॥
तस्मिन्
स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं ।
घोराङ्कमादाय
शिशोर्ददावथ ।
गाढं
कराभ्यां भगवान् प्रपीड्य तत्
प्राणैः
समं रोषसमन्वितोऽपिबत् ॥ १० ॥
सा
मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी
निष्पीड्य
मानाखिलजीवमर्मणि ।
विवृत्य
नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुः
प्रस्विन्नगात्रा
क्षिपती रुरोद ह ॥ ११ ॥
तस्याः
स्वनेनातिगभीररंहसा
साद्रिर्मही
द्यौश्च चचाल सग्रहा ।
रसा
दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः
पेतुः
क्षितौ वज्रनिपात शङ्कया ॥ १२ ॥
निशाचरीत्थं
व्यथितस्तना व्यसुः
व्यादाय
केशांश्चरणौ भुजावपि ।
प्रसार्य
गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो
वृत्र इवापतन्नृप ॥ १३ ॥
मखमली
म्यान के भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवार के समान पूतना का हृदय तो बड़ा कुटिल
था;
किन्तु ऊपरसे वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी । देखनेमें
वह एक भद्र महिलाके समान जान पड़ती थी । इसलिये रोहिणी और यशोदाजीने उसे घरके भीतर
आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभासे हतप्रतिभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखती रहीं ॥ ९ ॥ इधर भयानक राक्षसी पूतनाने बालक
श्रीकृष्णको अपनी गोदमें लेकर उनके मुँहमें अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयङ्कर और किसी प्रकार भी पच न सकनेवाला विष लगा हुआ था ।
भगवान्ने क्रोधको अपना साथी बनाया और दोनों हाथोंसे उसके स्तनोंको जोरसे दबाकर
उसके प्राणोंके साथ उसका दूध पीने लगे (वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध
प्राण पीने लगा !) [*] ॥ १० ॥ अब तो पूतना के प्राणोंके आश्रयभूत सभी मर्मस्थान
फटने लगे। वह पुकारने लगी—‘अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर !’ वह
बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटककर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर
पसीनेसे लथपथ हो गया ॥ ११ ॥ उसकी चिल्लाहटका वेग बड़ा भयङ्कर था। उसके प्रभावसे
पहाड़ोंके साथ पृथ्वी और ग्रहोंके साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाएँ
गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपातकी आशङ्कासे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १२ ॥ परीक्षित् !
इस प्रकार निशाचरी पूतनाके स्तनोंमें इतनी पीड़ा हुई कि वह अपनेको छिपा न सकी,
राक्षसीरूपमें प्रकट हो गयी। उसके शरीरसे प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये।
जैसे इन्द्रके वज्र से घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे
ही वह बाहर गोष्ठमें आकर गिर पड़ी ॥ १३ ॥
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[*]
भगवान् रोष के साथ पूतना के प्राणों के सहित स्तन-पान करने लगे, इसका यह अर्थ प्रतीत होता है कि रोष (रोषाधिष्ठातृ-देवता रुद्र) ने
प्राणोंका पान किया और श्रीकृष्णने स्तनका ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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