॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
मैत्रेय उवाच -
एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री
सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ।
विस्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्य
तुष्टाव तत्त्वविषयाङ्कित सिद्धिभूमिम् ॥ १ ॥
देवहूतिरुवाच -
अथाप्यजोऽन्तःसलिले शयानं
भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते ।
गुणप्रवाहं सदशेषबीजं
दध्यौ स्वयं यत् जठराब्जजातः ॥ २ ॥
स एव विश्वस्य भवान् विधत्ते
गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।
सर्गाद्यनीहोऽवितथाभिसन्धिः
आत्मेश्वरोऽतर्क्य सहस्रशक्तिः ॥ ३ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! श्रीकपिल भगवान्के ये वचन सुनकर कर्दमजी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान् श्रीकपिलजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं ॥ १ ॥
देवहूतिजी ने कहा—कपिलजी ! ब्रह्माजी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे । उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करनेवाले आपके पञ्चभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाहसे युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनोंका बीज है, ध्यान ही किया था ॥ २ ॥ आप निष्क्रिय, सत्यसङ्कल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियोंसे सम्पन्न हैं। अपनी शक्तिको गुणप्रवाहरूपसे ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियोंमें विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्वकी रचना आदि करते हैं ॥ ३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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