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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)
पूतना-उद्धार
अव्यादजोऽङ्घ्रि
मणिमांस्तव जान्वथोरू
यज्ञोऽच्युतः
कटितटं जठरं हयास्यः ।
हृत्केशवस्त्वदुर
ईश इनस्तु कण्ठं
विष्णुर्भुजं
मुखमुरुक्रम ईश्वरः कम् ॥ २२ ॥
चक्र्यग्रतः
सहगदो हरिरस्तु पश्चात् ।
त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी
मधुहाजनश्च ।
कोणेषु
शङ्ख उरुगाय उपर्युपेन्द्रः
तार्क्ष्यः
क्षितौ हलधरः पुरुषः समन्तात् ॥ २३ ॥
इन्द्रियाणि
हृषीकेशः प्राणान्नारायणोऽवतु ।
श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं
मनो योगेश्वरोऽवतु ॥ २४ ॥
पृश्निगर्भस्तु
ते बुद्धिं आत्मानं भगवान्परः ।
क्रीडन्तं
पातु गोविन्दः शयानं पातु माधवः ॥ २५ ॥
व्रजन्तमव्याद्
वैकुण्ठ आसीनं त्वां श्रियः पतिः ।
भुञ्जानं
यज्ञभुक् पातु सर्वग्रहभयङ्करः ॥ २६ ॥
डाकिन्यो
यातुधान्यश्च कुष्माण्डा येऽर्भकग्रहाः ।
भूतप्रेत
पिशाचाश्च यक्षरक्षो विनायकाः ॥ २७ ॥
कोटरा
रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः ।
उन्मादा
ये ह्यपस्मारा देह प्राणेन्द्रियद्रुहः ॥ २८ ॥
स्वप्नदृष्टा
महोत्पाता वृद्धा बालग्रहाश्च ये ।
सर्वे
नश्यन्तु ते विष्णोः नामग्रहणभीरवः ॥ २९ ॥
वे
कहने लगीं—‘अजन्मा भगवान् तेरे पैरोंकी रक्षा करें, मणिमान्
घुटनों की, यज्ञपुरुष जाँघोंकी, अच्युत
कमरकी, हयग्रीव पेटकी, केशव हृदयकी,
ईश वक्ष:स्थल की, सूर्य कण्ठकी, विष्णु बाँहोंकी, उरुक्रम मुखकी और ईश्वर सिर की
रक्षा करें ॥ २२ ॥ चक्रधर भगवान् रक्षाके लिये तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमश: धनुष और खड्ग धारण
करनेवाले भगवान् मधुसूदन और अजन दोनों बगलमें, शङ्खधारी
उरुगाय चारों कोनोंमें, उपेन्द्र ऊपर, हलधर
पृथ्वीपर और भगवान् परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षाके लिये रहें ॥ २३ ॥ हृषीकेश भगवान्
इन्द्रियोंकी और नारायण प्राणोंकी रक्षा करें । श्वेतद्वीपके अधिपति चित्तकी और
योगेश्वर मनकी रक्षा करें ॥ २४ ॥ पृश्निगर्भ
तेरी बुद्धिकी और परमात्मा भगवान् तेरे अहंकारकी रक्षा करें । खेलते समय
गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें ॥ २५ ॥ चलते
समय भगवान् वैकुण्ठ और बैठते समय भगवान् श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजनके समय
समस्त ग्रहोंको भयभीत करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान् तेरी रक्षा करें ॥ २६ ॥ डाकिनी,
राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत,
प्रेत, पिशाच, यक्ष,
राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना,
मातृका आदि; शरीर, प्राण
तथा इन्द्रियोंका नाश करनेवाले उन्माद (पागलपन) एवं अपस्मार (मृगी) आदि रोग;
स्वप्न में देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह
और बालग्रह आदि—ये सभी अनिष्ट भगवान् विष्णुका नामोच्चारण
करनेसे भयभीत होकर नष्ट हो जायँ[*] ॥ २७—२९ ॥
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इस प्रसङ्ग को पढक़र भावुक भक्त भगवान् से कहता है—‘भगवन् ! जान
पड़ता है, आपकी अपेक्षा भी आपके नाम में शक्ति अधिक है;
क्योंकि आप त्रिलोकी की रक्षा करते हैं और नाम आपकी रक्षा कर रहा है
।’
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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