॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)
पूतना-उद्धार
श्रीशुक
उवाच ।
इति
प्रणयबद्धाभिः गोपीभिः कृतरक्षणम् ।
पाययित्वा
स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम् ॥ ३० ॥
तावन्नन्दादयो
गोपा मथुराया व्रजं गताः ।
विलोक्य
पूतनादेहं बभूवुः अतिविस्मिताः ॥ ३१ ॥
नूनं
बतर्षिः सञ्जातो योगेशो वा समास सः ।
स
एव दृष्टो ह्युत्पातो यद् आहानकदुन्दुभिः ॥ ३२ ॥
कलेवरं
परशुभिः छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः ।
दूरे
क्षिप्त्वावयवशो न्यदहन् काष्ठवेष्टितम् ॥ ३३ ॥
दह्यमानस्य
देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः ।
उत्थितः
कृष्णनिर्भुक्त सपद्याहतपाप्मनः ॥ ३४ ॥
पूतना
लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघांसयापि
हरये स्तनं दत्त्वाप सद्गतिम् ॥ ३५ ॥
किं
पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने ।
यच्छन्प्रियतमं
किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥ ३६ ॥
पद्भ्यां
भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः ।
अङ्गं
यस्याः समाक्रम्य भगवान् अपिबत् स्तनम् ॥ ३७ ॥
यातुधान्यपि
सा स्वर्गं अवाप जननीगतिम् ।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः
किमु गावोऽनुमातरः ॥ ३८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार गोपियोंने प्रेमपाशमें बँधकर भगवान् श्रीकृष्णकी
रक्षा की । माता यशोदाने अपने पुत्रको स्तन पिलाया और फिर पालने पर सुला दिया ॥ ३०
॥ इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरासे गोकुलमें पहुँचे । जब उन्होंने
पूतनाका भयङ्कर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३१ ॥
वे कहने लगे—‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्य ही वसुदेवके रूपमें किसी ऋषिने जन्म ग्रहण किया है । अथवा सम्भव है
वसुदेवजी पूर्व- जन्ममें कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि
उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखनेमें आ रहा
है ॥ ३२ ॥ तबतक व्रजवासियोंने कुल्हाड़ीसे पूतनाके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर डाला
और गोकुलसे दूर ले जाकर लकडिय़ोंपर रखकर जला दिया ॥ ३३ ॥ जब उसका शरीर जलने लगा,
तब उसमेंसे ऐसा धूँआ निकला, जिसमेंसे अगरकी-सी
सुगन्ध आ रही थी । क्यों न हो, भगवान् ने जो उसका दूध पी
लिया था—जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे ॥ ३४
॥ पूतना एक राक्षसी थी । लोगोंके बच्चोंको मार डालना और उनका खून पी जाना—यही उसका काम था। भगवान् को भी उसने मार डालनेकी इच्छासे ही स्तन पिलाया
था । फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषोंको मिलती है ॥
३५ ॥ ऐसी स्थितिमें जो परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णको श्रद्धा और भक्तिसे
माताके समान अनुरागपूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगनेवाली वस्तु
समर्पित करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ३६
॥ भगवान् के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शङ्कर आदि
देवताओंके द्वारा भी वन्दित हैं । वे भक्तोंके हृदयकी पूँजी हैं । उन्हीं चरणोंसे
भगवान् ने पूतनाका शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था ॥ ३७ ॥ माना कि वह राक्षसी थी,
परंतु उसे उत्तम-से-उत्तम गति—जो माताको मिलनी
चाहिये—प्राप्त हुई । फिर जिनके स्तनका दूध भगवान् ने बड़े
प्रेम से पिया, उन गौओं और माताओं की[*] तो बात ही क्या है ॥
३८ ॥
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जब ब्रह्माजी ग्वालबाल और बछड़ों को हर ले गये, तब भगवान् स्वयं
ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये । उस समय अपने विभिन्न रूपोंसे उन्होंने अपने साथी
अनेकों गोप और वत्सों की माताओं का स्तनपान किया । इसीलिये यहाँ बहुवचन का प्रयोग
किया गया है ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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