॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)
पूतना-उद्धार
पयांसि
यासामपिबत् पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम् ।
भगवान्
देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः ॥ ३९ ॥
तासामविरतं
कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम् ।
न
पुनः कल्पते राजन् संसारोऽज्ञानसंभवः ॥ ४० ॥
कटधूमस्य
सौरभ्यं अवघ्राय व्रजौकसः ।
किमिदं
कुत एवेति वदन्तो व्रजमाययुः ॥ ४१ ॥
ते
तत्र वर्णितं गोपैः पूतना गमनादिकम् ।
श्रुत्वा
तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्चासन् सुविस्मिताः ॥ ४२ ॥ नन्दः
स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः ।
मूर्ध्न्युपाघ्राय
परमां मुदं लेभे कुरूद्वह ॥ ४३ ॥
य
एतत्पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्भुतम् । श्रृणुयात्
श्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते रतिम् ॥ ४४ ॥
परीक्षित् ! देवकीनन्दन भगवान् कैवल्य आदि सब प्रकार की मुक्ति और सब कुछ देनेवाले हैं । उन्होंने व्रजकी गोपियों और गौओं का वह दूध जो भगवान् के प्रति पुत्र-भाव होनेसे वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया ॥ ३९ ॥ राजन् ! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान् श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के ही रूपमें देखती थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्रमें कभी नहीं पड़ सकतीं; क्योंकि यह संसार तो अज्ञानके कारण ही है ॥ ४० ॥
नन्दबाबा के साथ आनेवाले व्रजवासियों की नाक में जब चिता के धूएँ की सुगन्ध पहुँची, तब ‘यह क्या है ? कहाँसे ऐसी सुगन्ध आ रही है ?’ इस प्रकार कहते हुए वे व्रजमें पहुँचे ॥ ४१ ॥ वहाँ गोपोंने उन्हें पूतना के आने से लेकर मरने तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वे लोग पूतना की मृत्यु और श्रीकृष्ण के कुशलपूर्वक बच जाने की बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए ॥ ४२ ॥ परीक्षित् ! उदारशिरोमणि नन्दबाबा ने मृत्यु के मुख से बचे हुए अपने लालाको गोदमें उठा लिया और बार-बार उसका सिर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए ॥ ४३ ॥ यह ‘पूतना-मोक्ष’ भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत बाल-लीला है । जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्राप्त होता है ॥ ४४ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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