रविवार, 17 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

श्रीराजोवाच
येन येनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः
करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो ॥ १ ॥
यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा
सत्त्वं च शुद्ध्यत्यचिरेण पुंसः
भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं
तदेव हारं वद मन्यसे चेत् ॥ २ ॥
अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम्
मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः ॥ ३ ॥

श्रीशुक उवाच
कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे
जन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्
वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै-
श्चकार सूनोरभिषेचनं सती ॥ ४ ॥
नन्दस्य पत्नी कृतमज्जनादिकं
विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः
अन्नाद्यवासःस्रगभीष्टधेनुभिः
सञ्जातनिद्रा क्षमशीशयच्छनैः ॥ ५ ॥
औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी
समागतान्पूजयती व्रजौकसः
नैवाशृणोद्वै रुदितं सुतस्य सा
रुदन्स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत् ॥ ६ ॥
अधःशयानस्य शिशोरनोऽल्पक
प्रवालमृद्वङ्घ्रिहतं व्यवर्तत
विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं
व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम् ॥ ७ ॥
दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय
औत्थानिके कर्मणि याः समागताः
नन्दादयश्चाद्भुतदर्शनाकुलाः
कथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात् ॥ ८ ॥
ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्च बालकाः
रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः ॥ ९ ॥
न ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत
अप्रमेयं बलं तस्य बालकस्य न ते विदुः ॥ १० ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछाप्रभो ! सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुननेमें मधुर लीलाएँ करते हैं । वे सभी मेरे हृदयको बहुत प्रिय लगती हैं ॥ १ ॥ उनके श्रवणमात्रसे भगवत्-सम्बन्धी कथासे अरुचि और विविध विषयोंकी तृष्णा भाग जाती है । मनुष्य का अन्त:करण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है । भगवान्‌ के चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है । यदि आप मुझे उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान्‌ की उन्हीं मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये ॥ २ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट होकर मनुष्य-जाति के स्वभाव का अनुसरण करते हुए जो बाललीलाएँ की हैं अवश्य ही वे अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिये आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का भी वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार [*] भगवान्‌ श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था । उसी दिन उनका जन्मनक्षत्र भी था । घर में बहुत-सी स्त्रियों की भीड़ लगी हुई थी । गाना-बजाना हो रहा था । उन्हीं स्त्रियों के बीच में  खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजीने अपने पुत्रका अभिषेक किया । उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढक़र आशीर्वाद दे रहे थे ॥ ४ ॥ नन्दरानी यशोदाजीने ब्राह्मणोंका खूब पूजन-सम्मान किया । उन्हें अन्न, वस्त्र,माला, गाय आदि मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं । जब यशोदा ने उन ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालकके नहलाने आदिका कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्लाके नेत्रोंमें नींद आ रही है, अपने पुत्रको धीरेसे शय्यापर सुला दिया ॥ ५ ॥ थोड़ी देरमें श्यामसुन्दरकी आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पानके लिये रोने लगे । उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सवमें आये हुए व्रजवासियोंके स्वागत-सत्कारमें बहुत ही तन्मय हो रही थीं । इसलिये उन्हें श्रीकृष्णका रोना सुनायी नहीं पड़ा । तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे ॥ ६ ॥ शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़ेके नीचे सोये हुए थे । उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलोंके समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे । परंतु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया [#] । उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसोंसे भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे । वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जूआ फट गया ॥ ७ ॥ करवट बदलनेके उत्सवमें जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब, और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटनाको देखकर व्याकुल हो गये । वे आपसमें कहने लगे—‘अरे, यह क्या हो गया ? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया ?’ ॥ ८ ॥ वे इसका कोई कारण निश्चित न कर सके । वहाँ खेलते हुए बालकोंने गोपों और गोपियोंसे कहा कि इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँवकी ठोकरसे इसे उलट दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं॥ ९ ॥ परंतु गोपोंने उसे बालकोंकी बातमानकर उसपर विश्वास नहीं किया । ठीक ही है, वे गोप उस बालकके अनन्त बलको नहीं जानते थे ॥ १० ॥
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[*] यहाँ कदाचित् (एक बार) से तात्पर्य है तीसरे महीनेके जन्मनक्षत्रयुक्त कालसे । उस समय श्रीकृष्णकी झाँकी का ऐसा वर्णन मिलता है

स्निग्धा: पश्यति सेष्मयीति भुजयोर्युग्मं मुहुश्चालयन्नत्यल्पं मधुरं च कूजति परिष्वङ्गाय चाकाङ्क्षति ।।
लाभालाभवशादमुष्य लसति क्रन्दत्यपि क्वाप्यसौ पीतस्तन्यतया स्वपित्यपि पुनर्जाग्रन्मुदं यच्छति ।।

स्नेहसे तर गोपियोंको आँख उठाकर देखते हैं और मुसकराते हैं । दोनों भुजाएँ बार-बार हिलाते हैं । बड़े मधुर स्वरसे थोड़ा-थोड़ा कूजते हैं । गोदमें आनेके लिये ललकते हैं । किसी वस्तुको पाकर उससे खेलने लग जाते हैं और न मिलनेसे क्रन्दन करते हैं । कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं और फिर जागकर आनन्दित करते हैं ।

 [#] हिरण्याक्षका पुत्र था उत्कच । वह बहुत बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था । एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषिके आश्रमके वृक्षोंको कुचल डाला । लोमश ऋषिने क्रोध करके शाप दे दिया—‘अरे दुष्ट ! जा, तू देहरहित हो जा ।उसी समय साँपके केंचुलके समान उसका शरीर गिरने लगा । वह धड़ामसे लोमश ऋषिके चरणोंपर गिर पड़ा और प्रार्थना की—‘कृपासिन्धो ! मुझपर कृपा कीजिये । मुझे आपके प्रभावका ज्ञान नहीं था । मेरा शरीर लौटा दीजिये ।लोमशजी प्रसन्न हो गये । महात्माओंका शाप भी वर हो जाता है । उन्होंने कहा—‘वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णके चरण-स्पर्शसे तेरी मुक्ति हो जायगी ।वही असुर छकड़ेमें आकर बैठ गया था और भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणस्पर्शसे मुक्त हो गया ।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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